वो बंद खिड़की Anil Shukla
वो बंद खिड़की
ये कहानी आज के समाज के लोगों के बदलते नज़रिये, बदलती सोच, महिलाओं के प्रति उनकी हैवानियत को उजागर करती है
वो शाम का समय था ज्यादातर लोग अपने-अपने घरों से बाहर निकल रहे थे, ऐसा लग रहा था मनो उन सब को उस मतवाली पवन ने बुलाया हो और वो सब एक अपनी प्रियतमा से मिलने के लिए जा रहे थे।ऐसा लग रहा था मानो एक पल की देरी भी इन्हें एक असहनीय वियोग का अनुभव करा रही हो। मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया। मैं चल तो रहा था पर मानो ऐसा लग रहा था कि पवन मुझे अपने साथ कहीं ले जा रही हो, मैंने बिना अपने गंतव्य की परवाह किए खुद को उसके हवाले कर दिया। अभी कुछ समय भी नहीं गुजरा होगा कि मुझे पवन के झोंको ने मेरे सपनों से बाहर निकाला। मैं अपनी वास्तविक दुनिया में आया, मैं खुद के चारों तरफ़ देख रहा था, एकाएक मेरी नज़रें पवन के झोंके का पीछा करते हुए एक खिड़की तक गई। ऐसा लगा मानो दुनिया थम सी गई हो ..उसकी वो आँखें। पर पवन का इरादा कुछ और ही था, उसने अपनी अठखेलियाँ थोड़ी बढ़ा दी और अपने हाथों से उसकी लटों को सवारने लगी, ऐसा लग रहा था मानो वो उसके स्पर्श से मुझे चिढ़ा रही हो। उसके बाल हवा में लहरा रहे थे, उसके गालों की लाली मुझको रिझा रही थी, मैं कुछ पल के लिए उस पल में खो गया और उस मासूमियत सी सूरत में खो गया...मैं उसकी पलकों के उठने का इंतज़ार करता रहा पर शायद वो भी पवन के साथ मिली हुई थी, मैंने उस पल को हवा का एक तोहफा समझ कर उसे एक याद के रूप में रख लिया।
अब तो हर रोज़ उस रोज़ का इंतज़ार होने लगा था, खुद को बड़ी मुश्किल से याद रख पा रहा था। खुद से खुद की जंग सी होने लगी थी, अगर आँखे बंद करता तो उसकी बंद पलकें आँखे खोलने न देती और अगर आँखे खोलता तो पल-पल बेचेनी होती रहती। आखिर खुद ने खुद से एक समझौता किया खुद को “खुद” के हवाले कर दिया मैंने। पर खुद से खुद को हार कर भी जीता हुआ महसूस कर रहा था। मैं हर रोज़ वहाँ जाने लगा, मुझे वो उसी जगह पर बैठी हुई मिलती, ऐसा लगता था मानो वो भी मेरा इंतज़ार कर रही हो। मैं उस पल को कैद कर लेना चाहता था, उस पल के साथ खो जाना चाहता था, उस अनजानी चाहत को पहचान देना चाहता था, मैं उसे अपना बनाना चाहता था। मैं उसे रोज़ इसी तरह मिलने लगा पर अब बेबसी बढ़ती जा रही थी, उसकी पलकों की खिड़की कब खुलेगी। धीरे-धीरे एक महीना गुज़र गया। उसकी एक मुस्कराहट हर दुःख दूर कर देती थी, उसकी दूरी अब सहन नहीं होती थी, हर पल ख्याल आता था उसकी आँखे कैसी होंगी, आँखों की वो नीली हया आँखों को सुकून देती थी। जब पवन उसके होठों को छूकर गुजरती थी तो दिल में एक सिरहन सी दौड़ जाती थी। फिर खुद उसके होठों को अपने होठों पर महसूस करता और उन बंद आँखों के सपनों में खुद को जीवंत महसूस करता।
वही शाम का समय था सभी लोग फिर से अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहे थे, मैं भी अपनी प्रेयसी से मिलने जाने लगा, पर आज हवाओं का रुख कुछ बदला-बदला सा लग रहा था, ऐसा लग रहा था मानो वो मुझे आज ले जाना नहीं चाहती थी पर मैं खुद खो रोक न पाया और चलने लगा। मन में एक अजीब सी बैचेनी हो रही थी वहाँ पहुँच कर खुद की नज़र उठाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, खुद को उसकी नज़रों का पीछा करने को कहा और नज़रें उस बंद खिड़की पर जाके रूक गईं, दिल को दर्द का एहसास हुआ पर आँखों ने बगावत कर दी, खुद को ना रोक पायी और बगावत का नीर उन आँखों से बहने लगा। साँसों के साथ बहता दर्द आँखों से मिल रहा था, फिर खुद को दिलासा दी और उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। हर एक पल उस पल की याद दिला देता जब उसकी नज़रों से मिलन हुआ था, दिल एक अनहोनी की आहट से घबरा जाता। जब उसके कमरे के दरवाजे पर पहुँचा तो उसे खोलने की हिम्मत ना हुई। एक झटके के साथ दरबाजा खोला अन्दर का नज़ारा एक अनहोनी को बयां कर रहा था, सब कुछ खाली था बस एक खाली कुर्सी और एक बैसाखी थी जो अनहोनी का संकेत थी। फिर नज़र उस बंद खिड़की पर गई, एक ख़त को देखा, एक डर के साथ उसे खोला जब उसे पढ़ने लगा आँखों ने एक बार फिर बगावत कर दी।
“इन आँखों की खता को माफ़ कर देना, पर मैं उन सपनों को नहीं खोना चाहती जो तुमने मुझे दिए ...जब तुम्हें पता चलता कि मेरे पैर नहीं हैं तो शायद तुम मुझे छोड़ देते, इस ख्याल से ही में जा रही हूँ अब तक खुद को तो बचा लिया, पर खुद के अंश को कैसे बचाऊँगी। मैंने इस खिड़की से उस दुनिया को देखा है जो बहुत जालिम है, हमें जीने का हक़ देना नहीं चाहती। एक ओर आप प्यार की चाहत करते हो दूसरी ओर हमें जीने देना नहीं चाहते हो .....उस दुनिया में कैसे कदम रखूँ, एक खौफ से भरी हुई हूँ, हर पल उन भेड़ियों की नज़रों से बचना पड़ता है, हर पल उन जालिमों का साया पीछा करता है। तुम्हारी मोहब्बत का डर नहीं है, डर तो उस बात का है कि अपनी इस मोहब्बत की निशानी को दुनिया में कैसे लाऊँगी, अपनी उस लाड़ली को इन हैवानों से कब तक बचाऊँगी...उसे इस दुनिया में लाने से डर लगता है।” इससे आगे पढ़ न पाया, खुद को खुद की नज़रों में गिरा हुआ पाया। ऐसा लगा मानो उसकी इन बातों का क्या जबाब देता ...उसके लिए इस बंद खिड़की को कैसे खोल पाता क्योंकि मैं भी इसी भेड़ियों के समाज का हिस्सा हूँ।
आज उस खिड़की खो खोलना चाहता हूँ, उसे इस दुनिया से मिलाना चाहता हूँ, उसे बताना चाहता हूँ कि एक दिन ये लोग जरूर बदलेंगे। पर एक सवाल उस बंद खिड़की खोलने ने रोकता है, “क्या ये लोग बदलेंगे ...?”