निर्मम वट  SUBRATA SENGUPTA

निर्मम वट

यह कहानी मानव एवं प्रकृति से जुड़ी एक दर्द देने वाली सत्यता को दर्शाती है, जिस तरह मनुष्य अपने लाभ हेतु दूसरे जीवों का शोषण करते हैं उसी प्रकार प्रकृति भी ऐसा ही करती है।

मेरी अवस्था नौ-दस वर्ष की थी तब की बात है। मेरे घर के समीप एक विशाल साल का पेड़ था। आस-पड़ोस के लगभग सभी बच्चे इसी पेड़ की शीतल छाया में अक्सर धमा-चौकड़ी किया करते थे। धामा चौकड़ी मचाते समय धमा-चौकड़ी के नियमों का उल्लंघन हो जाया करता था और आपस में नोक-झोक हो जाने के कारण वयवृद्ध के डाँट-फटकार भी सुनने पड़ते थे। इसी मौज-मस्ती में समय निकलता गया।

एक दिन सुबह-सुबह मेरी नज़र उस साल की एक मोटी शाखा के पर्व संधि पर पड़ी। उस पर्व संधि पर से एक नन्हा वट का पौधा मेरी ओर झाँक रहा था। मैं विस्मय से उस नन्हे पौधे को टकटकी लगाकर निहारता रहा।

उस नन्हे पौधे से मुझे मेरी आखें हटाने का मन तो नहीं था पर पिताजी की डाँट से मुझे घर की ओर प्रस्थान करना पड़ा।

बहुत दिनों के बाद एकाएक उस नन्हे वट पौधे पर मेरी दृष्टि गई और देखा नन्हे पौधे से कई धागानुमा जड़ें हवा में झूला झूलने लगे थे और दो-चार जड़ें उस पेड़ को प्यार से चिपक कर अपने प्यार का प्रदर्शन कर रहे थे।

मानो मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने पिताजी से चिपका हुआ हूँ। मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। मैं इस दृश्य से इतना विस्मित हो चुका था कि मैं ही वह नन्हा वट पौधा हूँ। काश! ऐसा ही हो जाता तो…

समय की धारा आगे की ओर बहती गयी। उसे किसी का इंतज़ार नहीं है क्योंकि इस संसार के सभी लोग बड़ी आतुरता से उसी का इंतज़ार करते रहते हैं।

कई वर्षों के बाद नन्हा वट अब नन्हा नहीं रहा अब तो वह किशोर अवस्था में पग रख चुका था और उसकी धागानुमा जड़ें अब मोटी-मोटी रस्सियों का रूप धारण कर चुके थे।

अपनी मोटी-मोटी जड़ों से साल के पेड़ को इस प्रकार लपेट रखे थे कि ऐसा लग रहा था साल का पेड़ अपना वजूद खो चुका है और उसे खड़े रहने के लिए इन मोटी मोटी जड़ों का सहयोग अति आवश्यक है।

इधर मैं भी यौवन की दहलीज पर कदम रख चुका था। पिताजी वृद्ध हो चुके थे अपने और अपने परिवार के भरण-पोषण हेतु मुझे सपरिवार स्थानांतरण करना पड़ा।

वर्षों बीत चुके थे। मैं पचास की अवस्था पार कर चुका था। मेरे मस्तिष्क से नन्हा वट और साल का पेड़ ध्यान पूर्ण रूपेण धुल चुके थे क्योंकि वर्षों से अपने प्राथमिक निवासस्थल के दर्शन करने का मौका ही नहीं मिल सका। जो भी हो आखिर ईश्वर की असीम कृपा से मैंने पुनः अपने प्रारंभिक निवास स्थल पर अपने कदम रखने की सफलता को हासिल कर ही लिया, परन्तु यह क्या? वह विशाल साल का पेड़ कहाँ गायब हो गया? यहाँ तो केवल एक विशाल वट वृक्ष अपनी मोटी-मोटी जड़ें फैलाये खड़ा है।

आस-पड़ोस से ज्ञात हुआ कि वह विशाल साल के पेड़ को यह वट का वृक्ष धीरे-धीरे दबोचते हुए निगल गया। मैं आश्चर्यचकित उस निर्मम वट के वृक्ष को देखता रहा और सोचता कि इस संसार की सबसे ज्ञानवान मानव जाति से पेड़-पौधे भी भिन्न नहीं हैं क्योंकि वह भी मानव की तरह ही स्वार्थी, निर्मम और अवसरवादी हैं, जिस प्रकार मानव अपने पालनहार को अपने स्वार्थ हेतु सर्वस्व छीनकर उसे काल के गाल में झौंक देते हैं उसी प्रकार उस नन्हे वट ने भी धीरे-धीरे विशाल साल के पेड़ को आत्मस्वात कर लिया।

प्रकृति का यह निर्मम परिहास चक्र चलता आया है और क्या भविष्य में भी चलता रहेगा? यह चक्र एक प्रश्न चिन्ह बनकर ही रह जाएगा? या इसपर संपूर्ण मानव जाति आपसी मतभेद भुलाकर कोई हल निकलेगा यह निर्णय केवल संपूर्ण मानव जाति के आपसी स्नेह और प्रेम पर ही निर्भर है।

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