दिल का बोझ Mohanjeet Kukreja
दिल का बोझ
दिल के एक अजीब से बोझ और उससे परेशान ज़मीर की एक लघुकथा...
"बाबू जी...!"
मुझे लगा आवाज़ मुझे ही दी गई है। मुड़ कर देखा, दयनीय सी हालत और खस्ताहाल सी सेहत का मालिक... कुछ पुराने और फटे कपड़ों में लिपटे शरीर के ऊपर बस टिके हुए से एक चेहरे पर कुछ अजीब से बेचारगी के भाव...!
आवाज़ शायद उसी की थी...
“मुझे… मुझे शाहदरे जाना है!"
"तो?" मैं एकाएक समझ नहीं पाया कि वह आदमी यह मुझे क्यों बता रहा है।
"बाबू…जी..." वह थोड़ा रुक-रुक कर बोला, "वो मेरे पास बस के किराए के लिए पैसे नहीं हैं। बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप..."
मेरे साथ मेरी अपनी परेशानियाँ ही बहुत थीं। खुरेजी से शाहदरा तक पचास पैसे का टिकट लगता था उन दिनों। मैंने जेब में हाथ डाल कर एक सिक्का, जिसे मैं पीसीओ से फ़ोन करने के लिए अक्सर अपने पास रखता था, निकाला और उसके हवाले कर दिया।
लेकिन इससे पहले कि सिक्का वो अपनी जेब में डालता, कुछ सोच कर मैंने वो सिक्का उसके हाथ से तुरंत वापिस उठा लिया और उस शरीफ़ आदमी के कुछ समझ पाने से पहले ही अपने पर्स के कोने में से दबा पड़ा एक दूसरा सिक्का निकाल कर उसकी हथेली पर टिका दिया।
वह कुछ देर हैरानी और संदिग्ध नज़रों से उसे घूरता रहा, फिर जब उसे इत्मीनान हो गया कि सिक्का खोटा नहीं है तो मैं आगे बढ़ गया। वहाँ रुक कर उसकी दुआएँ सुनने का न मेरे पास वक़्त था और न ही मैंने उसकी ज़रुरत समझी।
वैसे यूँ किसी "अनजान ज़रूरतमंद" की मदद करना - ख़ास तौर पर जबसे एक आदमी अपना ऐसा ही कोई दुखड़ा रोकर मुझसे बीस रूपए ले गया था - एक-दो दिन में लौटाने का वादा करके - या किसी भिखारी को भीख देना, मुझे कभी भी ठीक नहीं लगता था।
तो क्या मैं अब बदलता जा रहा था? या यह उस पुरानी घटना का नतीजा था –
"साहब, एक अठन्नी से आप का क्या हो जाएगा?"
"बात एक अठन्नी की नहीं है भाई, बात है उसूल की!" मेरी आवाज़ में उत्तेजना थी...बहुत ग़ुस्सा आ रहा था मुझे उस रिक्शावाले पर... भला यह भी कोई बात हुई!
"कोई बिना पैसे पूछे बैठ जाए तो ज़रूरी नहीं कि वो कोई नया जाने वाला है!" मैं बोला, "रोज़ का आना-जाना है। एक रूपया लगता है, तुम्हें ख़ुद ही डेढ़ दे रहे हैं कि चलो भई शाम का वक़्त है, मगर तुम तो..."
"नहीं साहब", रिक्शेवाला भी ढिठाई से बोला, "दो रुपये ही लगेंगे!"
"देखो, मैं तुम्हें डेढ़ रुपये से ऊपर एक पैसा भी देने वाला नहीं हूँ!"
"आप यह भी मत दो, साहब!" वह तैश में बोला।
हद हो गई थी बेहयाई की। मेरा भी माथा गर्म हो गया, "तुम्हारी मर्ज़ी फिर!" मैंने पैसे जेब में डाले और उसे अचंभित खड़ा छोड़ कर वहाँ से चल पड़ा। वैसे उस रिक्शावाले ने ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं होगा।
घर लौट कर अपनी उस हरकत पर मैं ख़ुद भी हैरान था ... मुझे उन दो सिक्कों में से एक ग़रीब के पसीने की चिपचिपाहट का अहसास होने लगा। क्योंकि मैं उन सिक्कों को कभी ख़र्च नहीं कर पाया, वे मेरे पर्स के एक कोने में दबे पड़े रहते थे - मुझे मेरी बची-खुची इंसानियत का एक सुखद आभास करवाते हुए।
जब भी रिक्शा में बैठ कर कहीं जाना होता, मैं उस पुराने रिक्शावाले को पहचानने की व्यर्थ कोशिश करता रहता और आज यह जानते हुए भी कि वो कोई सही तरीक़ा नहीं था उस ग़रीब रिक्शावाले तक उसका मेहनताना पहुँचाने का, मुझे थोड़ी ख़ुशी हो रही थी, अजीब सी एक ख़ुशी। शायद अपने दिल पर पड़े बोझ के एक-तिहाई कम हो जाने पर!!