बेबसी  Anupama Ravindra Singh Thakur

बेबसी

मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। हम बचपन से ही यह सुनते आए हैं। सही बात है, समय से अधिक बलवान कुछ नहीं। वही हमें आज राजा बनाता है वही कल रंक बना देगा। इन आज-कल के पहियों पर चलता हुआ समय कभी-कभी हमें अप्रत्याशित रुप से परेशानी में डाल देता है और हम सभी प्रयासों के बावजूद भी अभिलषित लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते और समय दुःख और दुर्भाग्य के हाथों हमारी परीक्षा लेता है। इसीलिये इसके विषम होने पर भी सम रहें, सच्चाई और इमानदारी के मार्ग से कभी विचलित न हों।

तुकाराम और गया बाई गरीबी में जीवन यापन कर रहे थे। तुकाराम मिस्त्री का कार्य करता था तो गया बाई लोगों के घर बर्तन और कपड़े की सफाई का कार्य कर रही थी। वह बहुत मुश्किल से दो समय का भोजन जुटा पाते। 3 लड़कियांँ थी, फिर भी बेटे का मोह नहीं छूट रहा था। इस बार गया फिर से इस उम्मीद में गर्भवती रही कि बेटा हो जाए परंतु संभवतः भाग्य को यह स्वीकार नहीं था और गया को एक और बेटी हो गई। तुकाराम ने इसे भी बहुत ही सहजता से लिया। बिटिया को सभी सोनी कहकर बुलाने लगे। सोनी का पायगुण ही कहिए उसके बाद गया को दो बेटे हो गए। तुकाराम के लिए वह बहुत नसीब वाली लड़की हो गई। आते-आते सभी उसे सोनी-सोनी कहते। गरीबी में भी उसकी इच्छाओं का सम्मान किया जाता। सभी बेटियाँ तीव्र गति से बढ़ने लगी। अब तुकाराम को इनकी शादियों की चिंता हुई। तीनों बेटियों की शादी करने के बाद तुकाराम ने सोनी के लिए रिश्ता ढूँढना प्रारंभ किया। मुंबई में एक फैक्ट्री में काम करने वाले सौरभ से उसका विवाह हुआ। सोनी बहुत खुश थी कि मुंबई शहर फिरेगी और मौज करेगी। शादी के कुछ महीने तो बहुत हँसते खेलते बीते, जल्दी ही सोनी भी उम्मीद से रही। उसे डॉक्टर को दिखाया गया। महीने भर की गोलियाँ और इंजेक्शन शुरू हो गए। सौरभ के लिए यह अतिरिक्त भार वहन करना मुश्किल हो गया। वह बात-बात में सोनी से कहता, "यह सब मुझसे नहीं होगा, अपने बाप से कुछ रुपये मँगवा लो। पहली डिलीवरी माता -पिता के यहाँ होती है।" यह कहकर उसने सोनी को मायके भेज दिया। तुकाराम पहले ही बीमार चल रहा था, गया अभी भी लोगों के यहाँ बर्तन कर घर चला रही थी। ऐसे में बेटी की डिलीवरी का खर्च कैसे संभाल पाएगी यह चिंता उसे होने लगी। अभी तो सातवाँ महीना ही चल रहा था, तुकाराम ने सौरभ को समझाया पर वह नहीं माना और बार-बार यही कहने लगा, "मेरी तनख्वाह बहुत कम है, मुझसे नहीं होगा।" सोनी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उसे कुछ कह सके। वह केवल अपने भाग्य को रोती रही। तुकाराम इसी चिंता में कि डिलीवरी के लिए पैसा कहाँ से आएगा, सतत बीमार रहने लगा। सोनी का नौवा महीना चलने लगा, जिस प्रकार सोनी का गर्भ बढ़ने लगा, उसी प्रकार तुकाराम की चिंता एवं व्याधि बढ़ने लगी। सोनी का बच्चा इस दुनिया में आता उससे पहले ही तुकाराम यह दुनिया छोड़कर चला गया।

सोनी का तो जैसे भाग्य ही फूट गया था, सबसे अधिक प्रेम करने वाले उसके बाबा उससे दूर चले गए थे। वह बार-बार यही सोचती कि उसके कारण ही उसके बाबा की मौत हुई है, वह अपनी माता पर बोझ बन गई है। ऐसी परेशानियों में सोनी ने एक बेटे को जन्म दिया परंतु बदकिस्मती ने अभी तक उसका पीछा नहीं छोडा था। सोनी का दूध ही नहीं आ रहा था। डॉक्टर ने कहा, "बच्चे को गाय का दूध पिलाना होगा।" यह सोचकर वह परेशान थी कि दूध के लिए पैसे कहाँं से आएँगे। उसने अब सोच लिया कि वह अपने पति के घर लौट जाएगी। उसने तुरंत सौरभ को फोन किया। सौरभ दूसरे दिन उसे लेने आ गया। गया ने कहा, "तुम्हे आराम की जरूरत है, सवा महीना तो होने दो।" पर सोनी नहीं मानी। मुंबई पहुँचने पर सौरभ को पता चला कि सोनी को दूध नहीं आ रहा है और अब उसे हर रोज दूध खरीदना होगा। सौरभ फिर से भुनभुन करने लगा, हर दिन आधा एक लीटर दूध इतने पैसे मैं कहाँ से लाऊँ, आए दिन सौरभ सोनी पर चिल्लाता, तुम कैसी माँ हो? तुम्हें दूध क्यों नहीं आता? कंगाल बनाने के लिए क्या मैं ही मिला था?

सोनी रोज-रोज के तानों-गालियों एवं मारपीट से तंग आ चुकी थी, एक एक दिन जब रात में भयंकर बारिश हो रही थी, सौरभ काम से लौटा ही था कि सोनी ने कहा, थोड़ा दूध लेकर आओ, वह चिढ़ गया और बड़बडाने़ लगा। सोनी के सब्र का बांँध अब टूट गया, वह बच्चे को लेकर निकल पड़ी। भारी बारिश में बच्चे को लेकर स्टेशन पहुँची। बच्चा पूरी तरह भीग चुका था। वह रात भर स्टेशन पर बैठ कर रोती रही, आत्महत्या का विचार उसके मन में हिलोरे ले रहा था। पर उस नन्हें बालक को देख हिम्मत न हुई। सुबह जब मानवत जाने वाली गाड़ी आई तो वह उसमें बैठ गई। जब माँ के घर पहुँची तो बेटे का बदन बुखार से तप रहा था। गया बाई सोनी को देखकर आश्चर्य में पड़ गई पर बच्चे की हालत देख उसने कुछ भी न पूछा और बच्चे को लेकर सरकारी अस्पताल पहुँची। डॉक्टर ने हाथ लगा कर जाँच की और कहा निमोनिया के कारण इसकी मौत हो गई है, सोनी तो जैसे पत्थर हो गई। काशी दहाड़ मार कर रोने लगी और सोनी चुपचाप बुत बनकर खड़ी थी। उसकी आंँखें भी जैसे पथरा गई हों, गया ने खूब कहा, रो ले बेटी, तेरा बेटा अब नहीं रहा, पर सोनी की आँखों से आँसू ना निकला। परिस्थितियों ने उसे इतना कठोर बना दिया था कि अब उसे हर परिस्थिति सामान्य लगने लगी थी। जैसे उसने ठान लिया था कि अब वह कभी नहीं रोएगी। बेटे का मृत शरीर उठाकर वह शमशान की ओर निकल पड़ी। माँ ने कहा सौरभ को फोन करना होगा, पर सोनी को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था। गया उसके पीछे- पीछे चल रही थी और सोनी बेटे का शव लिए खामोशी के साथ आगे बढ़ी जा रही थी। बेटे को दफनाते समय जब उस पर मिट्टी डाली जाने लगी तब सोनी जोर से चीखी, जैसे किसी नींद से बाहर आई हो। बेटे के शव को लपेट कर वह बहुत रोई। किसी तरह गया ने उसे अलग किया और बालक का अंतिम संस्कार करने लगाया। अब सोनी को किसी भी बात में रुचि नहीं रही। सौरभ से वह नफरत करने लगी थी, उसे उसकी नपुंसकता पर घिन आने लगी थी। सोनी कितने दिन मनाती? अधिक दिनों तक बैठे रहना संभव न था। वह भी गया के साथ बर्तन करने लगी। धीरे-धीरे समय बीतता गया, समय ने गया को भी सोनी से छीन लिया। अब केवल सोनी और उसका अकेलापन रह गया। सोनी ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया है। सोनी आज किसी पर भी निर्भर नहीं है और ना ही दुखी है। लोगों के घर कार्य कर वह उनकी खुशियों को ही अपनी खुशी मानती है।

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