सब कुछ तो यहीं फेडना है Anupama Ravindra Singh Thakur
सब कुछ तो यहीं फेडना है
हर माँ को लगता है उसकी बेटी को सारे ऐशो आराम मिले परंतु बहु के लिए वह इस प्रकार नहीं सोचती। आज भी हमारे समाज में यह अंतर देखने को मिलता है।
नंदिनी का ब्याह हुए 10 वर्ष हो चुके थे। उसका अपना साड़ियों का व्यापार भी अच्छा चल रहा था। बड़ा बेटा कक्षा दसवीं में आ गया था। वैसे तो वह बहुत स्वाभिमानी है परंतु जैसे ही वह अपने मायके आती है, अपनी विधवा माँ की पेंशन पर ही अपना सारा संसार जुटाना चाहती है। बच्चों को कपड़े, पति को जूते, खुद के लिए साड़ी, घर के लिए परदे, पता नहीं और क्या-क्या, सब कुछ तो वह मायके से समेटना चाहती है।
बेबाक तथा मुँहफट नंदिनी तो पहले किसी की छोटी सी मदद लेना भी पसंद नहीं करती थी, परंतु आज शादी के बाद इतना परिवर्तन आश्चर्यजनक था। किसी ने सच ही कहा है, लड़की पराया धन होती है। उसके इस व्यवहार पर सुषमा को बहुत गुस्सा आता पर वह तो उस घर की बहू थी किससे कहती? पति से कहो तो वह कहता, "मेरी इकलौती बहन है" और सास से कहो तो वह कहती, "मेरी बेटी का है सब कुछ।"
दीपावली की छुट्टियों में नंदिनी के मायके आने पर सुषमा तो जैसे घर की नौकरानी ही बन जाती। सुबह नाश्ता, दोपहर में दो-तीन सब्जियांँ, रायता, अचार पापड़ और रात में कुछ और स्वादिष्ट भोजन। नंदिनी के बच्चों की अलग-अलग माँंगे, चाय, शरबत, कपड़े, बर्तन सब कुछ तो देखना होता। पर किसी को उसकी ओर देखने की फुर्सत नहीं होती। नंदिनी तो मायके आराम करने आती है। वह सुषमा की मदद कैसे करेगी? इस दिवाली पर जब नन्दिनी मायके आई तो कुछ उखड़ी-उखड़ी रहने लगी। माँ ने पूछा, "क्यों, क्या हुआ? इतनी उदास क्यों है?" नन्दिनी ने बताया इस बार गर्मी की छुट्टियों में उसके पास उसकी ननद आने वाली है। उसने कहा, "माँ क्या बताऊँ तुझे, उसे सब कुछ हाथ में देना पड़ता है। पानी तक उठकर नहीं लेती। नई-नई खाने की फरमाइशें करती रहती है। माँ ने तपाक से कहा, "तूने ही सिर पर चढ़ा रखा है उसे। वह महारानी के जैसे बैठकर रहे और तू नौकरानी की तरह दिन भर काम करे, बोलती क्यों नहीं तू उसे कुछ।"
किचन में नौकरानी की तरह काम कर रही सुषमा की हँसी फूट पड़ी, मन में मुस्कुराते हुए वह सोचने लगी, "सब कुछ तो यही फेडना है।"