फुफकार  SUBRATA SENGUPTA

फुफकार

मनुष्य को सरल होना चाहिए परन्तु सरल दिखना नहीं चाहिए ताकि वह असामाजिक तत्वों से अपनी सुरक्षा कर सके, यह कहानी इसी सीख पर आधारित है।

बहुत पुराने समय की बात है। किसी घने जंगल के सामने एक गाँव था। उस गाँव से शहर जाने के लिए एक पगडण्डी थी जो घने जंगल से होती हुई गुज़रती थी, इसी पगडण्डी के किनारे जंगल के समीप किसी बिल में एक विषधर साँप रहता था। इस विषधर साँप से गाँव वाले बहुत ही परेशान थे। किसी को यदि अकेला पा जाता तो उसे डस कर सीधे यमलोक की यात्रा करा देता था, या उसे दौड़ा-दौड़ा कर इतना परेशान कर देता था कि वह और कभी भी उस मार्ग पर जाने की हिम्मत नहीं करता था।

उस विषधर साँप का आतंक पूरे गाँव वालों के हृदय पर छा चुका था पर क्या करें मरता क्या नहीं करता ! किसी भी तरह डर-डर कर गाँव वाले जी रहे थे।

गाँव वाले हमेशा इस साँप के आतंक से अपने बचाव के लिए ईश्वर का स्मरण करते रहते थे। आखिरकार शायद ईश्वर ने गाँव वालों की प्रार्थना सुन ली।

एक शाम को उस गाँव में एक सन्यासी का पदार्पण हुआ। सन्यासी को गाँव वालों ने अपना दुखड़ा सुनाया। गाँव वालों का दुखड़ा सुनकर वह उस पगडण्डी पर चल पड़े। फिर कुछ दूरी तय करने के पश्चात सन्यासी के सामने उस साँप ने अपना फन उठाकर उसके आगे चलने के मार्ग को रोकने का प्रयास किया।

परन्तु सन्यासी ने पालक झपकते ही मंत्र फूँक कर उसे अपने वश में कर लिया और उसका मुँह बंद कर आगे की ओर बढ़ने लगा। यह देखकर उस विषधर साँप ने सन्यासी के चरणों को स्पर्श करते हुए इशारों से विनयपूर्वक क्षमादान की याचना करने लगा।

यह देख सन्यासी को उस दुष्ट साँप पर दया आ गई और उससे यह वचन लिया कि इस प्रकार का कृत्य भविष्य में कभी न करे। सन्यासी का आदेश सहर्ष स्वीकार कर साँप जीवन बिताने लगा।

इस घटना के पश्चात साँप के कभी भी किसी के साथ अनिष्ट व्यवहार नहीं किया और न ही किसी को कभी परेशान किया। अब सभी गाँव वाले भयविहीन उस पगडण्डी पर से आवागमन कर रहे थे। किसी के हृदय में उस विषधर साँप से कोई भय नहीं था।

मनुष्य अपने स्वाभाव से जगप्रसिद्ध है, वह अपने स्वाभाव का प्रदर्शन किए बिना शांत नहीं रह सकता है। साँप को शांत रहते देख अब गाँव वाले साँप को सताने लगे और उसे पत्थर मार-मार कर लहुलूहान कर दिए। गाँव वालों के पत्थरों के आघात से घायल होकर अपने बिल में अस्वस्थ अवस्था में अपनी मृत्यु के दिन गिन ही रहा था कि उसे एकाएक सन्यासी की आवाज़ सुनाई दी। सन्यासी ने साँप को अपने बिल से बहार आने का आदेश दिया पर साँप ने कातर स्वर में सन्यासी से कहा कि बाबा जी मैं बहुत ही घायल हूँ मुझमें चलने की शक्ति नहीं है और मैं आपके आदेश का निष्ठापूर्वक आदर से पालन किया हूँ, फिर भी मेरी यह दशा जो आपके सम्मुख है।

जब अपनी दुष्टता से ग्रामवासिओं को डसता था तो ये मुझसे कोसों दूर रहते थे परन्तु मेरी अच्छाई मुझे मौत की यात्रा कराने में तत्पर है।

यह सुनकर सन्यासी ने बिल के मुँह पर अपना मुँह रखकर ज़ोर से फूँका और कहा बिल के बहार आ जाओ। यह सुनते ही साँप के संपूर्ण शरीर में पूर्व से भी अधिक शक्ति दौड़ गई और वह बिल से बाहर आकर सन्यासी के चरण स्पर्श किया।

सन्यासी ने साँप को फटकारते हुए कहा, अरे मूर्ख! तुझे मैंने डसने, परेशान करने से मना किया था परन्तु "फुफकारने" से मना नहीं किया था। इस संसार में अगर शान्ति पूर्ण जीना है तो बिना फुफकारे जी नहीं सकते हो इसलिए जीने के लिए फुफकारना अति आवश्यक है।

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