स्वाभिमान  Anupama Ravindra Singh Thakur

स्वाभिमान

निराधार योजना बहुत अच्छी है परंतु यह सच में जरूरतमंदों तक पहुँच रही है या नहीं यह देखना सरकार की जिम्मेदारी है। आज भी कई वृद्ध व्यक्ति सड़कों पर बेसहारा पाए जाते हैं। उनकी मदद करना हम सबकी जिम्मेदारी है।

कई दिनों से सोच रही थी कि एस.बी.आई बैंक में अपने पति के साथ ज्वाइंट अकाउंट खोलूँ। सर्दियों की छुट्टियाँ चल रही थीं, सोचा आज कैसे भी करके यह काम कर लिया जाए। मैं अपनी दोनों बेटियों को लेकर सुबह 12:00 बजे तक बैंक पहुँच गई। बैंक में काफी भीड़ थी, समझ में नहीं आ रहा था कि किस से मिलना चाहिए। मैं सिक्योरिटी से पूछ ही रही थी कि उतने में 70-75 वर्ष की एक वृद्धा मेरे सामने आकर मुझे इशारों से छोटी डायरी नुमा किताब दिखाने लगी। मैं हैरान थी। दुबली-पतली सी उसकी काया, चेहरे पर झुर्रियाँ साफ नज़र आ रही थीं। आँखों पर जो चश्मा था उसे नाक के ऊपरी भाग के मध्य में कपड़े से बाँधकर जोड़ा गया था। हल्की सी जगह-जगह फटी हुई महाराष्ट्रीयन साड़ी पहने वह मुझे किताब दिखा कर हाथ जोड़ने लगी। मैंने पूछा, "इसका क्या करना है?" उसने अपने कान पर हाथ रखकर इशारों में कहा, सुनाई नहीं देता। मैंने गड़बड़-गड़बड़ से उसकी किताब हाथों में ली और उसे खोल कर देखा। वह बैंक की पासबुक थी। उसमें एक फ़ार्म रखा हुआ था। मेरी समझ में कुछ नहीं आया करना क्या है? मैंने उसे इशारा करके पूछा, "क्या करना है?" उत्तर में उसने फिर से हाथ जोड़े। मैंने फिर एक बार समझने की कोशिश की पर शायद मेरा पूरा ध्यान अपने काम की ओर था अतः वृद्धा की मदद करने के लिए मैंने सिक्योरिटी गार्ड को आवाज लगाई और उसकी मदद करने के लिए कहा। सिक्योरिटी गार्ड ने बिना जाने ही उसे कतार में बिठा दिया। मैं अपना काम करने में लग गई।

आधे घंटे के बाद जब मैं वहाँ से लौट रही थी तो देखा वृद्धा उसी कतार में बैठी हुई है। अब मेरे पास समय भी था। मैंने उससे वह किताब माँगी और अपनी बेटी को उसका फॉर्म भरने के लिए कहा। मेरी बेटी ने पासबुक में से जानकारी लेकर फॉर्म भर दिया। इतना तो समझ में आ गया था कि वृद्धा उस फॉर्म के माध्यम से पैसे निकालना चाहती है। मेरी बेटी को उसने हाथों के इशारों से और बहुत बारीक आवाज में पाँच कहा। शायद उसे 500 रुपये चाहिए थे। बेटी ने फ़ार्म में 500 रुपये भर दिए। मैंने वृद्धा से पूछा, "तुम्हारे घर पर कौन-कौन है?" बहुत ही बारीक आवाज में उसने कहा - "कोई नहीं।" मैंने वृद्धा को कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और मैं वह पासबुक और फॉर्म लेकर पैसे निकालने वाली खिड़की की ओर गई। पैसे देने वाली मैडम दोपहर का भोजन करने के लिए गई हुई थी। पास ही खड़ी एक महिला ने जब देखा कि मैं वृद्धा का फॉर्म और पासबुक लेकर खड़ी हूँ तो उसने मुझसे कहा, "पहले देख तो लो पासबुक में पैसे शेष है या नहीं। बाहर मशीन में डालने पर बैलेंस पता चलेगा।" मैंने अपने बेटी को पासबुक अपडेट करवाने के लिए भेजा और मैं वृद्धा के साथ खड़ी होकर महिला अधिकारी के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। काफी देर तक मेरी बेटी नहीं लौटी तो मैं बाहर आ गई। देखा तो मशीन पर काफी भीड़ थी। मैं भी कतार में लग गई। दो ही नंबर बचे थे। मशीन में पासबुक डालकर अपडेट कराने का एक नया अनुभव मैंने सीखा।

जब पासबुक अपडेट हो गया तो खोल कर देखा उसमें केवल 38 रुपये शेष थे। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वृद्धा से कैसे कहें कि उसके खाते में पैसे नहीं है। मैंने सोचा कि मैं ही उसे 500 रुपये दे देती हूँ। सबसे पहले मैं उस महिला के पास गई जिसने पासबुक अपडेट करने की सलाह दी थी। मैंने उससे कहा - "इसके खाते में तो कुछ भी नहीं है।" उस महिला ने कहा- "मुझे तो पहले ही यह लगा कि उसके खाते में पैसे नहीं है।" मैंने वृद्धा को पासबुक देते हुए ऊँची आवाज में कहा - "पैसे नहीं है इसमें।" वह एक शब्द भी नहीं बोली। केवल मेरी और देख रही थी। मैंने अपने पर्स में सौ-सौ के पाँच नोट निकालकर उसके हाथ में थमाए। मुझे लगा कि वह खुश होगी और मुझे धन्यवाद देगी। पर मेरी अपेक्षाओं के विपरीत वृद्धा ने कहा- "नाही-नाही मला तुपले पैसे नाही पाहीजे।" अर्थात मुझे तेरे पैसे नहीं चाहिए। मैं दंग रह गई। उसे पैसे देते वक्त शायद मैं कहीं ना कहीं अभिमान महसूस कर रही थी पर उसके स्वाभिमान ने जैसे मेरे अभिमान को चकनाचूर कर दिया था। मैं बार-बार उससे विनती करने लगी, "रहने दे, तेरे काम आएँगे। तुम्हारे पैसे मै क्यों लूँ?" यह कहकर वृद्धा ने मेरे पैसे जमीन पर फेंक दिए। आसपास के सभी लोग देखने लगे। मैंने चुपचाप अपने पैसे उठाए और बैंक के बाहर आ गई। वृद्धा वहाँ से लाठी टेकते जा रही थी। मैंने उससे फिर एक बार विनती की। उसने कहा- "नहीं, नहीं, उधर एक खड्डा है, वहाँ मुझे मेरी पगार मिलेगी।" मुझे अपने रवैये पर बहुत पछतावा होने लगा। मेरे मन में द्वंद्व चल रहा था। "काश! मैंने उसे उसके पगार के पैसे कह कर दिए होते तो वह आवश्य ले लेती। वृध्दा का तो कोई नहीं है। कहाँ जाएगी वह? मैंने उसे क्यों बताया कि उसके खाते में पैसे नहीं है? कहीं मुझे उस पर अहसान तो नहीं जताना था। यह एक अच्छा चाँटा था। मेरा गर्व चूर करने का।

मेरा मन विचलित था। जाने किस बात से पता नहीं? वृद्धा ने मेरी मदद ठुकराई या फिर मैं वृद्धा के लिए कुछ नहीं कर पा रही हूँ। कुछ समझ में न आ रहा था। यह एक सच्ची करुणा थी। मैं स्कूटी धीरे-धीरे चलाने लगी और वृद्धा के पीछे-पीछे जाने लगी। मेरी बेटियाँ मुझे डाँट रही थीं। वे कह रही थी- "मम्मी कहीं वृद्धा कुछ और ना समझ ले।" पर फिर भी मैंने नहीं सुना। कुछ दूर जाकर वृद्धा रुक गई और एक दुकान के पास खड़ी होकर इधर-उधर देखने लगी। मैं फिर स्कूटी उसके निकट ले गई तो उसने मुझसे कहा, पिछली बार उसे यहीं से पगार के पैसे मिले थे।"

वहाँ एक लड़का खड़ा था। मैंने उससे पूछा, "क्या यहाँ कोई बैंक है जो निराधार के पैसे देता है?" उसने कहा, "नहीं।" मैंने उस लड़के से कहा, "इससे कहो, यह नहीं मान रही है और ना ही मेरी मदद ले रही है।" उस लड़के ने उसे ऊँची आवाज में कहा, "येथे बैंक नाही आजी। ते मदद करत आहे तर घे ना।" मैंने डरते -डरते अपनी बेटी के हाथ में 100 रुपए दिए और कहा, "देकर देख, लेती है क्या?" मेरी बेटी ने निकट जाकर कहा- "इतने तो रख लो, रिक्शा के लिए काम आएँगे।" आखिर में उसने वे 100 रूपए रख लिए और मैं तुरंत वहाँ से निकल गई पर यह पछतावा रहा कि उसे तो 500 रुपये चाहिए थे पर मैं उसकी मदद नहीं कर पाई। कठिन परिस्थितियों में भी कुछ लोग अपना स्वाभिमान नहीं खोने देते। मैं नतमस्तक थी वृद्धा की ईमानदारी एवं स्वाभिमान पर।

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