ठिठुरन Anupama Ravindra Singh Thakur
ठिठुरन
समाजसेवा का दर्द और पीड़ा केवल चंद लोगों को ही होती है। कुछ लोग समाज में अपना रूतबा बताने के लिए समाजसेवा का पाखण्ड करने लग जाते हैं। कुछ लोग समाज में सम्मान पाने के उद्देश्य से ही सेवा करने का ढोंग कर रहे हैं।
भीषण कड़कड़ाती ठंड में जहाँ चार-चार रजाई लेने से भी ठिठुरन नहीं जा रही थी वहीं मूक पशु इस ठंड का खुले में सामना कर रहे थे। लगता है सूर्य देवता भी इसी भय से प्रात: 6:30 के पश्चात प्रकाश बाँट रहे थे। चाहे मौसम जैसा भी हो, सभी को अपने कार्य तो करने होते ही हैं। जैसे सूर्य देवता का उदय होना, पंछियों का नीड से बाहर आना, प्रकृति में तो सब कुछ सामान्य रूप से चलता है, फिर इंसान कैसे रूके? मैं भी सुबह-सुबह 7:30 बजे पाठशाला के लिए निकल पड़ी। मोटा स्वेटर पहने, हाथों में दस्ताने, सिर पर ऊनी टोपी डाले, फिर भी हैंडल पर हाथ थरथरा रहे थे। रास्ते पर गाड़ियों की आवाजाही हर रोज की तरह ही सामान्य थी।
घर से निकलकर 5 मिनट की दूरी तय करने पर एक मोड़ पर अचानक मैंने गाड़ी को ब्रेक लगाया। रास्ते के एक किनारे मैली, फटी चटाई पर एक दुबली-पतली स्त्री, सिकुड़ कर बैठी हुई थी। शरीर पर जो साड़ी थी वह एक ओर जा रही थी, घुटने तक टाँगे खुली पड़ी थीं, पल्लू सरक कर जमीन पर लेट रहा था। बाल पूरी तरह से बिखरे हुए थे जैसे वर्षों से उसमें कंघी न की गई हो, बिल्कुल जटाएँ प्रतीत हो रही थी। वह इधर-उधर देख मुँह ही मुँह में कुछ बड़बड़ाते जा रही थी और स्वयं ही हँस रही थी। रास्ते पर आने-जाने वाले उसे मुड़-मुड़ कर देख रहे थे और आगे निकल जा रहे थे, कुछ-कुछ एक दूसरे को देख अश्लीलता से मुस्कुराए जा रहे थे। मुझे भी तो रजिस्टर साइन करना था अतः मैं भी मस्तिष्क में यह प्रश्न लिए कि इस स्त्री को क्या हो गया होगा अपने रास्ते पर आगे बढ़ी।
करीब दो-तीन घंटे उसकी स्मृति बनी रही पर धीरे-धीरे काम में मैं उसे भूल गई। संध्या को घर लौटते समय देखा तो वह स्त्री वहाँ नहीं थी, पर जैसे ही मोड़ पर मुड़कर आगे बढ़ी, कुछ दूरी पर मुझे वह दिखाई दी। अब मेरे पास समय था इसलिए मैं उसके निकट गई। उसकी स्थिति और भी भयंकर थी। उसके शरीर पर साड़ी नहीं थी उसका लहंगा घुटनों तक ऊपर चला गया था, एक कंधे पर से ब्लाउज नीचे सरक रहा था, छाती की हड्डियाँ स्पष्ट नजर आ रही थीं। अर्धनग्न अवस्था में वह बार-बार सिर खुजला रही थी । उसके आसपास अजीब सी बदबू आ रही थी, मक्खियाँ भी भिनभिना रही थी। मैंने नजदीक जाकर उससे पूछा कौन हो तुम और तुम्हारी यह स्थिति किसने की? उसे जैसे कुछ सुनाई नहीं दिया या फिर कुछ समझ में नहीं आया। वह बस इधर-उधर देख कर हँसने लगी, और जाने क्या बड़बड़ाने लगी। मैंने अपने पर्स में से टिफिन निकाला, उसमें रोटी बची थी, डरते-डरते हाथ आगे बढ़ाकर उसे दी। रोटी हाथ से लेकर वह खाने लगी। कुछ दो निवाले ही खाए होंगे फिर उसने रोटी नीचे डाल दी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था उसकी मदद कैसे करें? कुछ देर वहाँ रुक कर मैंने उससे बात करने की कोशिश की पर कुछ लाभ न हुआ। शाम गहराने लगी थी, मैं घर लौट आई। यही सोचने लगी कि किस से मदद माँगे? कुछ देर सोचने के बाद मैं अपने काम में व्यस्त हो गई। रात में खिड़की दरवाजे लगाकर उनके सांध से हवा ना आए इसीलिए वहाँ समाचार पत्र लगा रही थी, तभी मेरी नजर एक तस्वीर पर पड़ी। जिसमें रोटरी क्लब के सदस्य अन्न, वस्त्र गरीबों में बाँट रहे थे। मुझे उस स्त्री का स्मरण हो आया। मैनें झट से रोटरी क्लब के एक सदस्य जिन्हें मैं जानती थी, उनको फोन लगाया और उस दीन स्त्री के बारे में बताया। उनसे पूछा क्या कुछ मदद मिल सकती है? उन्होंने कहा, माफ कीजिए मैडम इस वर्ष हम किसी और प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। मैनें थैंक यू कह कर फोन रख दिया। बाहर साँय-साँय कर चलने वाली हवा से रूह काँप रही थी। सोचा उस स्त्री को जाकर देखूँ पर बच्चों को अकेले छोड़कर जाने की हिम्मत न हुई।
रात होते ही उसकी वह शोचनीय दशा याद आ रही थी। मन में आया, जीवित है भी या नहीं। सुबह स्कूल जा रही थी तो देखा वह रास्ते के किनारे सो रही है उसके शरीर पर काला मोटा कंबल था। मैंने राहत की साँस ली। मनुष्य भी ऐसे पशुओं के समान जीवन जीता है यह देख मन खिन्न एवं विचलित हो गया। संध्या समय फिर से उसकी पीड़ा देखना असहनीय लग रहा था, परंतु जब शाम को घर लौटी तो वह वहाँ नहीं थी। उसका क्या हुआ पता नहीं। पर रात में मेरे पापा जो अगली गली में रहते हैं, मुझसे मिलने आए थे, मैंने उनसे कहा, पापा एक बहुत ही दीन स्त्री कल से यहाँ ठंडी में बैठी हुई थी, पता नहीं रात में उसे किसने कंबल ओढ़ाया? पापा ने थोड़ा सा हिचकिचाते हुए कहा, "मैंने ही उसे कंबल ओढ़ाया था।" पापा के शब्दों में समाज की नीच सोच पर चिंता स्पष्ट नजर आ रही थी। उन्होंने कहा, "पहले तो वह उस तरफ थी फिर घिसट-घिसट कर वह इस कोने पर आई, ऐसे उसका कंबल उससे पीछे छूट गया और नाली के पानी से भी भीग गया था। तब रात में मैंने घर से पुराना कंबल लाकर उसके शरीर पर डाला।" अपने पिता के द्वारा किए गए इस कार्य पर मैं नतमस्तक थी और सोच रही थी कि किसी ने लिया या नहीं पर ईश्वर ने अवश्य इसका फोटो लिया होगा। ईश्वर किसी न किसी को मदद के लिए भेज ही देता है। चाहे वह जहाँ भी रहे, आगे भी ईश्वर ही उसका ध्यान रखेंगे। इसी सोच के साथ में निश्चिंत हो गई।