अच्छा या बुरा  SANTOSH GUPTA

अच्छा या बुरा

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कोरोना ने मानव जीवन को अस्त व्यस्त करके रख दिया है। कोरोना ने मानव सभ्यता में एक ऐतिहासिक बदलाव कर डाला है, बहुत कुछ बुरा हुआ है। लेकिन मैं समझता हूँ कोरोना काल कुछ अच्छा परिवर्तन भी लेकर आया है। इसलिए मेरे लिए यह कहना कठिन है कि कोरोना काल अच्छा है या बुरा।

लोगों की भीड़ की आवाज़ें और उनके चिल्लाने की गूँज सुनकर मैं बालकनी की ओर गया और नीचे देखा तो जो दृश्य था उसे देखकर यकीन नहीं हुआ। लोग खुशियों से नाच रहे थे, एक दूसरे के गले लग रहे थे, पुलिस भी थी पर कोई रोक नहीं, कोई पाबंदी नहीं। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं विस्मित था। मैने कैंलेडर की तरफ देखा आज कोई त्योहार है क्या। कैलेंडर के हिसाब से कोई त्योहार तो नहीं था और अगर कोई त्योहार भी है तो लोग ऐसे भीड़ कैसे लगा सकते हैं। इस विस्मय भरे माहौल का कारण नहीं समझ आया। मैंने टीवी चालू किया, समाचार चैनल लगाकर देखा तो जो खबर थी सुनकर विश्वास नहीं हो रहा था।

कोरोना वाइरस दुनिया से अलविदा कह चुका था। एक पल के लिए मुझे यकीन नहीं हुआ पर ये सच था। समाचारो में बस कोरोना के विदाई की खबर छाई हुई थी, पूरा संसार एक साथ खुशिया साझा कर रहा था। स्टेडियम में खचाखच भीड़ के साथ क्रिकेट मैच हो रहे है। नुक्कड़ पर ठेले वाला चाट बना रहा था, सिनेमाघरों के सामने टिकट की लम्बी लाइनें लगी थी, माॅल में भीड़ उमड़ी हुई थी। लोग शादियों के लिए खरीददारी कर रहे थे। स्विमिंग पूल और वाटर पार्क में भी भीड़ लगी है छोटे मोटे मंदिरों पर भी भक्तों की ऐसी भीड़ खड़ी थी जैसे अमरनाथ बाबा का धाम हो, और मस्जिद जैसे हज बन गए हों। लोग एक दूसरे से गले मिल रहे है, हाथ मिला रहे है, सारे खुशी से झूम उठे हों। खुशियों की ऐसी लहर सी चल पड़ी हो जैसे प्रशांत महासागर मे ज्वार-भाटा। सब अपने छोटे मोटे दुःखों को भुलाकर, गिले शिकवे भुलाकर बस खुशी साझा कर रहे हैं। कोई ईर्ष्या नहीं, कोई स्वार्थ नहीं किसी में। सामान्य ज़िन्दगी को वापस पाकर लोग बस उसी मे खो चुके हैं। बहुत दिनों के तालाबंदी की वजह से मिल नहीं पाने के कारण सभी अपने सगे सम्बन्धियों से मिलने जाते हैं, सफर का भी खूब आनंद लेते हैं। पूरे दुनिया में बस प्यार और खुशिया होती हैं। अमीरी भी है और गरीबी भी है लेकिन इन दो ध्रुवों के बल के बीच खुशियाँ दम नहीं तोड़ती। सुख और शांति का पदार्पण होता है। एक सुखी और सुंदर समाज एवं राष्ट्र बनता है।

पटरी पर रेलगाड़ी और ज़िन्दगी दोनों ही तेजी दौड़ने लगती हैं। कई दिन ऐसे ही बीत जाते हैं। लोग फिर से अपनी आम ज़िन्दगी में मशगूल हो जाते हैं, लेकिन धीरे-धीरे लोगों में ज़िन्दगी की प्रतिस्पर्धा फिर से शुरू हो जाती है। जीने के लिए अब किसी वाइरस से नहीं बल्कि आपस में लड़ते हैं। लड़ाई अब सिर्फ जीने की नहीं बल्कि एक दूसरे को नीचा दिखाने की भी होती है। स्वार्थ, अहंकार, फरेब, लूट, डाह जैसी प्रवृत्तियाँ फिर से महामारी की तरह फैल जाती हैं और ये महामारी एक दूसरे को मार देने और मिटा देने के लिए पर्याप्त होती है। लोगों के बीच विवाद की दीवार, सोशल डिस्टेंसिग बन जाती है, उनके कड़े बोल उनका मास्क बना जाता है, वे मारपीट कर के हाथों को सेनिटिईज करने लगते हैं। लोगों के बीच की दूरियाँ उन्हें क्वारानटाईन करने लगती हैं।

सांप्रदायिक फसाद फिर से शुरु हो जाते हैं। हर तरफ बस दंगे की कोलाहल सुनाई पड़ती है। लोगों की चिल्लाहट से वातावरण प्रदूषित हो जाता है। लोगों के भीड़ की आवाज़ें और उनके चिल्लाने की गूंज सुनकर मेरी नींद अचानक से खुली और मैं व्याकुल होते हुए जग गया। मेरी पत्नी जो मेरे पास ही सो रही थी वह भी मेरी इस दशा से थोड़ा अशांत होकर बोली कोई बुरा सपना देखा क्या आपने। मैं भ्रम में था कि मेरा सपना अच्छा था या बुरा।

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