अधूरी मित्रता  Abhishek Pandey

अधूरी मित्रता

जीवन के हर मोड़ पर हमें नए-नए दोस्त मिलते हैं और पुराने दोस्त पीछे छूट जाते हैं। उन पुराने दोस्तों की यादों के सहारे ही हम जीवन पथ पर आगे बढ़ते हैं। वो यादें मीठी भी होती हैं और टीस भी बहुत देती हैं। यह कहानी ऐसे ही दो दोस्तों के अलग-अलग जीवन पथों पर जाने की है।

मीट्रिक स्कूल की घंटी बजी टन-टन टनाटन टन -टन -टन। प्रधानाचार्य जी ने छुट्टी की घोषणा की। दिन भर के ऊबे छात्रों को तो जैसे मोक्ष मिल गया, वे सर पर पैर रख कर भागे मानो कोई बलि का बकरा गला छुड़ाकर भागा हो। उनका आनंद इस समय परमानन्द से भी शायद ऊपर था जो एक योगी कठोर साधना और ध्यान के बाद अनुभव करता है। आज वार्षिक परीक्षा का अंतिम दिन था और कल से गर्मियों की छुट्टियाँ आरम्भ होने वाली थीं इसलिए आज छात्र ऐसे उन्मत्त हो रहे थे जैसे कोई योद्धा अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी को परास्त करने के बाद होता होगा। पैदल छात्रों का दल पूरी सड़क को आच्छादित किए हुए एक दूसरे के गले में हाथ डाले हुए चल रहा था, आम जनमानस उनसे एक साइड से चलने की गुहार लगा रहे थे पर वे एक कान से सुन रहे थे और दूसरे से निकाल रहे थे। साइकिल सवार छात्र मार्ग में उनसे आगे जाने वाले वाहनों को अपनी गति से मात दे रहे थे और पूरी सड़क में साइकिल लहरा रहे थे। निचले दर्जे वाले छात्र अध्यापकों के तमाम चिढ़ाने वाले नामों का अविष्कार कर रहे थे और पुराने नामों का संशोधन कर रहे थे, कुछ छात्र नव निर्मित नामों को ऊँचे दर्जों में पढ़ने वालों को बता रहे थे।

रमेश और मोहन दोनों मेट्रिक अंतिम वर्ष के छात्र थे, बचपन से साथ-साथ पढ़े थे पर अब रमेश के घरवाले उसे मेट्रिक के बाद बाहर शहर के किसी कॉलेज में दाखिल करना चाह रहे थे। मोहन के पिता गरीब थे, वह पल्लेदारी का काम करते थे, उनकी हैसियत तो मोहन को शहर भेजने की थी ही नहीं। नैराश्य और विरह की दुखद कल्पना से आक्रांत होकर स्कूल के बाहर ही एक पेड़ के नीचे दोनों बैठ गए। वे दोनों इन अंतिम क्षणों की स्मृतियों को सहेज लेना चाहते थे।

रमेश - मोहन, आज तो हम लोगों का अंतिम दिन आ ही गया। मेरे पापा कल ही मुझे शहर के किसी कॉलेज में दाखिला दिलाने ले चलेंगें। फिर अपनी दोस्ती का क्या होगा?, इतना कहते कहते उसकी आखों में आँसू आ गए।

मोहन - तेरे बिना मेरा भी यहाँ जी एकदम ना लगेगा। पर मेरे बापू के पास इतना पैसा तो है नहीं, वो तो बेचारे मुझे जैसे तैसे पढ़ा रहे हैं। यहाँ तो कभी-कभी तेरा टिफिन खाकर पेट भर जाता था नहीं तो हमें तो पेट भर खाना भी मयस्सर नहीं होता। वहाँ हॉस्टल तो होगा ही न, नए-नए दोस्त बन जाएँगे। मैं न भी पढ़ पाउँगा तो मज़दूरी कर लूँगा, तुम तो मज़दूरी भी नहीं कर पाओगे।

सच्ची मित्रता कभी स्वार्थी नहीं हो सकती, वो भविष्य की दीनता देखकर भी लीक से विचलित नहीं होती।

रमेश - हॉस्टल तो है यार पर अब तुम्हारे जैसा दोस्त हर जगह थोड़े ही मिल सकता है। पर जाना तो पड़ेगा ही, पिताजी की जिद है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, पर परिवर्तन फल के बाद ही सुखद लगता है, आरम्भ में नहीं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह साक्षात वेदना को देखकर भी सुखद कल्पनाएँ करना नहीं छोड़ता। वह निराशा को ज्यादा से ज्यादा समय तक किसी आशा का अवलम्बन देकर टाल देना चाहता है। पर वो विधाता नहीं है।

सहसा मौन फिर टूटा और रमेश पुरानी स्मृतियाँ याद करने लगा। यार, यहाँ के दिन कितने अच्छे और मधुर थे। दिनभर हम लोग स्कूल की चारदीवारी लाँघकर बाहर घूमा करते थे। एक दूसरे का टिफिन भी खा लेते थे, जात और धरम की दीवारें न थीं। लड़कियों को भी खूब कागज फेंककर परेशान करते थे। कैसे वो बिल्लियों की तरह खीझती थीं, इतना कहकर दोनों के ठहाकों से वातावरण गूँज उठा।

जब हम भाव से भर जातें हैं, तो शब्द अपने आप ही निकल जाते हैं। मोहन बोल पड़ा, "और तुम्हें वो याद है जब एक बार शरत मास्टर जी की क्लास में सबने मिल कर शोर मचाया था, पर वो जान न पाए थे, फिर सबको मुर्गा बनाया था।" इस तरह शांत वातावरण बहुत देर तक किलकारियों से गूँजता रहा। इस तरह स्मृतियों की मिठास लेते-लेते संध्या हो गई। वातावरण में पुनः विरह की वेदना छाने लगी। दोनों मित्र एक बार फिर गले मिले, आँखें छलछला उठीं, आँसुओं से दोनों की वेदना बह निकली। उनकी आँखों के कोनों से कुछ बूंदें टपक कर भूमि पर छिटक गईं। दोनों मित्र एक दूसरे को अलविदा कहकर जीवन के दो भिन्न-भिन्न पथों पर चल निकले। परिवर्तन ने मित्रता की पूर्णता को अधूरा कर दिया। वातावरण उदास होकर बोल पड़ा, "अधूरी मित्रता!"

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