संवेदनहीनता Anupama Ravindra Singh Thakur
संवेदनहीनता
आजकल के युवा बच्चे जब अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो अपने माता-पिता की सोच को महत्व देना बंद कर देते हैं।
शांता मौसी मेरे पड़ोस में रहते हैं। पति का देहान्त होकर 2 वर्ष बीत गए परंतु उनका मन अब भी बेचैन ही रहता है। 60- 65 वर्षीय शान्ता मौसी के सिर में आज भी सफेदी न चढी थी, मध्यम कद एवं साँवले चेहरे पर बिना बिंदिया के सूना माथा उनके ज़िन्दगी के सूनेपन को दर्शाता है।
उम्र के साथ-साथ उनका शरीर भी भारी हो चुका था, परंतु आज भी काम के लिए वही चंचलपन था, जो जवानी में होता है। महाराष्ट्रीयन नौ मीटर की साड़ी पहनने में उन्हें 5 मिनट से अधिक समय न लगता।
तीन बेटियाँ और दो बेटे, ऐसा भरा-पूरा परिवार था मौसी का। बेटियाँ ब्याह कर ससुराल चली गई थीं और हमेशा के लिये पराई हो गई थीं। बड़ा बेटा शराब का आदी हो चुका था, शराब की लत ने ना केवल उससे उसके संस्कार छीने थे बल्कि अकाल ही उसे मृत्यु का ग्रास बना दिया था। जब तक जीवित रहा मौसी और अर्जुन मौसा को शराब के लिए सताता रहा।
शराब के लिए पैसे मांगता, न देने पर हंगामा कर माँ बाप को गलियाँ देता। सम्भवतः इसलिए ईश्वर ने उसे अपने पास बुला लिया था। छोटा बेटा धीरज, इसी शहर में एग्रीकल्चर ऑफिसर है, आलीशान बंगले में रहता है। जब कभी यहाँ आता तो पड़ोसियों से कहता है, "माँ को तो चलने के लिए कहता हूँ, पर ना जाने यहाँ ऐसा क्या खजाना रखा है आती ही नहीं।"
पति थे तब भी शांता मौसी और अर्जुन मौसा प्रातः मुँह अंधेरे उठते, स्नान करते, मौसी चाय बना देती, दोनों चाय बिस्किट खाते, पूजा अर्चना करते।
इस वृद्धावस्था में उनकी दोस्ती और भी पक्की हो गई थी। आज भी अकेले होने के बावजूद शांता मौसी सुबह-सुबह जल्दी उठ जाती। गुसलखाने में जाती, स्नान से पहले ही अपनी साड़ी धो लेती, स्नान कर फिर पूजा-अर्चना करती।
हर रोज की भांति वह आज भी सुबह जल्दी उठ बाथरूम में गई। फर्श गीली होने के कारण उस पर से मौसी का पैर फिसल गया और वह जोर से वहीं गिर पड़ी। उनके चिल्लाने की आवाज़ सुबह के शांत वातावरण में बाहर तक स्पष्ट रूप से पहुँची। मैं आंगन में झाड़ू लगा रही थी, दौड़कर पहुँची, तो देखा शांता मौसी पीठ के बल पर गिरी हुई हैं, हाथ की बाल्टी एक और लुड़की हुई है, जिसके कारण उनका आधा शरीर भीग गया था। मैंने उन्हें उठाने की कोशिश की पर स्वयं को असमर्थ पा कर पति को आवाज लगाई। वे सो रहे थे, हड़बड़ी में आँखें मलते दौड़े चले आए।
हम दोनों ने शांता मौसी को उठाया और हाथ पकड़ कर कमरे में लेकर गए। उनका गीला शरीर पोंछा और उन्हें पानी दिया। पतिदेव की नींद टूटने के कारण वे थोड़े खिजे हुए थे, कुछ कठोर स्वर में बोले, "कमाल है मौसी! बेटा एग्रीकल्चर ऑफिसर है फिर भी आप यहाँ अकेले रहकर सब काम करती हैं, जाती क्यों नहीं बेटे के पास।" शांता मौसी ने एक गहरी साँस ली और फिर पल्लू से आखें मलती हुई बोली, "कलयुग है बेटा, इसमें माँ भी बेटे को बोझ लगती है। पीछे तबीयत कुछ ठीक नहीं थी तो बेटा जबरदस्ती लोक लाज वश मुझे अपने घर ले गया था। तब उनके रंग ढंग देख लिए थे मैंने। सुबह उठो तो सब अपने काम में व्यस्त, सभी को बाहर जाने की हड़बड़ी, पहले सब नहा लेते उसके बाद मुझे बाथरूम मिलता, सब काम वाले जो ठहरे।
11 बजे मैं धीरे-धीरे अकेले ही बाथरुम जाती। 12 बजे बहू मुझे अपने कमरे में नाश्ता लाकर देती। उसके बाद मैं अकेले ही अपने कमरे में दिन भर पड़ी रहती। ना कोई बात करने वाला होता है, ना कोई हालचाल पूछने वाला।
बेटा सुबह-सुबह उठकर घर की पालतू कुतिया को घुमा लाता, उसके लिए सुबह-सुबह महंगे बिस्किट लाए जाते। कुतिया को शेम्पू लगाकर नहलाते हैं। उसे अपने साथ बिस्तर पर बिठाया और खिलाया जाता है। पर किसी के पास मेरे लिए फुर्सत नहीं थी।
फिर तुम ही बताओ, मैं वहाँ क्यों रहूँ ? अपने पति की पेंशन आती है, उसी में स्वाभिमान से यहाँ अपने छोटे से कमरे में रहकर गुज़ारा करती हूँ। जब भी कुछ लाना हो तो तुम और पड़ोस के लड़के तो मेरी मदद के लिए आ ही जाते हैं। मौसी की बातें सुनकर मेरे पति निरुत्तर हो गए और मैं सोचने लगी कि सचमुच कैसा जमाना आया है जहाँ कुत्तों को घर में लिया जाता है और माँ-बाप को घर के बाहर रखा जाता है।