बेटी शारदा  Upendra Prasad

बेटी शारदा

यह कहानी वर्तमान समाज में लड़कियों के प्रति हमारे विद्रुप नज़रिए को प्रतिबिम्बित करती है। पराए घर जाने वाली और दहेज के बोझ से कुंठित मन अपनी पुत्री के जन्म से दुखी हो जाता है किन्तु जब अपने जीवनकाल में कोई अपनी संतानों की आदतों का मूल्यांकन करता है तो अपनी पुत्री के आगे कोई नहीं पाता। यह दुर्भाग्य है कि जब तक हम पुत्री का महत्व समझ पाते तबतक हम सब कुछ खो चुके होते हैं। बस बाक़ी जीवन पश्चाताप करते बीत जाता है।

हर दिन की तरह आज भी हरिहर और चमेली सुबह-सुबह कूड़ा-कर्कट के ढ़ेर पर जा पहुँचे। हरिहर लाठी से ढ़ेर को ढाहता और चमेली चुन-चुनकर कबाड़ की चीज़ें बोरिया में रखती। तभी हरिहर की लाठी एक गठ्ठर से टकराई। गठ्ठर भारी था। ज्योंही चमेली गठ्ठर उठाई, उसमें किसी जानवर की हलचल देखकर तुरंत उसे फेंक दी। गठ्ठर में उसे कुत्ता या बिल्ली का बच्चा होने का अंदेशा हुआ। वह काफी डर गई थी किन्तु उसे खोलकर देखने की जिज्ञासा प्रबल हो गई। हरिहर के लाख मना करने के बावजूद वह सावधानी से गठ्ठर का बंधन खोलने लगी। अचानक उसमें हाथ की कुछ उँगलियाँ दिखायी पड़ी। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। खोलकर देखा तो एक सुन्दर बच्ची कपड़े में लिपटी थी। हरिहर और चमेली एक नि:संतान दम्पति थे। फलत: उस बच्ची को ईश्वरीय देन मानकर वे अपने घर ले आए। बच्ची देखने से अच्छे घर की लग रही थी परन्तु कुछ अस्वस्थ जान पड़ रही थी। दोनों उसे ले जाकर अस्पताल में इलाज कराए।

घर आकर दोनों बड़े लाड़-प्यार से बच्ची का पालन-पोषण करने लगे। सुंदर होने के कारण उसका नाम शारदा रखा। समय बीतने के साथ शारदा कुछ बड़ी हुई। चलना-फिरना सब कुछ सामान्य था किन्तु बोली में हकलाहट थी। उम्र होने पर वह नजदीक के स्कूल में पढ़ने जाने लगी। कुछ ही दिनों में उसके कई दोस्त बन गए। पढ़ने में लगन एवं सीखने की ललक देखकर शिक्षक भी उसे काफी चाहने लगे। परीक्षा हुई तो अव्वल आई। फलत: पढ़ाई-लिखाई में उसकी अभिरूचि बढ़ने लगी। यह देखकर हरिहर और चमेली फूले नहीं समाते।

शारदा की पढ़ाई-लिखाई और दैनिक ज़रूरतों को पूरी करने के लिए हरिहर और चमेली दिन-रात मेहनत करने लगे। शारदा की खातिर अब वे लोग कबाड़ चुनने के बजाय मज़दूरी करने लगे थे। झोपड़ी में ही शारदा के लिए एक स्टडी रूम तैयार कर दिया गया था।

ज्यों-ज्यों शारदा कक्षा की सोपान चढ़ती गई, त्यों-त्यों उसकी पढ़ाई-लिखाई में निखार आता गया। मैट्रिक की परीक्षा में वह पूरे राज्य में टॉप की। उसके घर में बधाइयों का ताँता लग गया। यह देखकर हरिहर और चमेली ख़ुशी से गदगद हो गए। पहली बार किसी कीचड़ में खिलते हुए कमल का दर्शन किया था। परन्तु इसके साथ ही हरिहर और चमेली अपनी उम्र की ढलान पर पहुँचने लगे। हरिहर की तबीयत तो अक्सर खराब रहने लगी। फलत: घर चलाने का सारा बोझ चमेली के माथे था।

मेडिकल की परीक्षा सन्निकट थी। शारदा जी-जान से परीक्षा की तैयारी में जुटी हुई थी। अचानक हरिहर को दिल का दौरा पड़ा और वह सदा के लिए शांत हो गया। हरिहर के आकस्मिक निधन से शारदा के सर से बापू का साया उठ गया। अब उसकी ज़िन्दगी माँ चमेली के सहारे थी।

शारदा बिना विचलित हुए मेडिकल की परीक्षा दी और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। कोर्स ख़त्म होने पर सुदूर शहर के एक हॉस्पिटल में चिकित्सक के पद पर नियुक्त हुई। माँ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। शारदा चमेली को गाँव छोड़कर शहर चलने के लिए कहने लगी किन्तु वह वहाँ जाने को तैयार नहीं हुई। वह बोली, “बेटी यह झोपड़ी हमारे जीवन की अनमोल अमानत है। यह हमारा कर्म-स्थल है। यहाँ हमें जीने का सहारा मिला। इसलिए मैं इस झोंपड़ी का परित्याग नहीं कर सकती।” माँ की विवशता से शारदा लाचार थी।

अस्तु, शारदा शहर पहुँचकर हॉस्पिटल में ज्वाइन की और निकट में ही एक घर किराए पर ले ली। शारदा बड़े समर्पण भाव से हॉस्पिटल में काम करने लगी। उसकी लगन और मिलनसार स्वभाव को देखकर सभी स्टाफ उसकी काफी इज्जत करते थे।

एक दिन शारदा नाईट–ड्यूटी कर हॉस्पिटल से पैदल ही घर वापस जा रही थी। तभी अंधेरे में किसी चीज से ठोकर लगी और वह एक गठ्ठर पर जा गिरी। गठ्ठर से किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। यह देखकर शारदा डर गई किन्तु साहस कर उसने गठ्ठर को खोला। एक बूढ़ी बीमार औरत फटे-पुराने कपड़ों में लिपटी पड़ी हुई थी। उसकी जान आखिरी साँस से संघर्ष कर रही थी। पर सुनसान रास्ते पर कोई मदद करने वाला मौजूद नहीं था। शारदा बिना देर किए उस बीमार औरत को अपने कंधों पर उठाई और हॉस्पिटल लाकर भर्ती की। वह घर न जाकर बिना खाए-पिए उस औरत का ईलाज करती रही। सुबह होने पर जब बुखार उतरा तो बूढ़ी औरत को होश आया। इसके बाद शारदा अपने घर गई।

शारदा प्रतिदिन उस बूढ़ी औरत के लिए घर से खाना बनाकर लाती तथा खूब देखभाल करती। बूढ़ी औरत स्वस्थ होने लगी। शारदा ने बूढ़ी औरत से बोला, "माताजी आपका घर कहाँ है? आपके परिवार में कौन-कौन हैं? आपका यह हाल कैसे हुआ?" बूढ़ी औरत ने जवाब दिया, "बेटी! मेरा इसी शहर में घर था। मैं अपने पति और पुत्र के साथ रहती थी। एकमात्र संतान होने के कारण वह हमारी आँखों का तारा था। हमारे दुलार-प्यार ने पुत्र को उद्दंड और नालायक बना दिया। बावजूद इसके हम लोगों ने उसकी बड़ी धूम-धाम से शादी की। किन्तु बहू बदमाश निकली। वह पुत्र के साथ मिलकर हम दोनों को प्रताड़ित करने लगी। हमारे सारे अरमान बिखर कर रह गए। इस बेगानेपन को मेरे पति सह न सके और एक दिन हृदयाघात से वे चल बसे। पति के निधन के बाद पुत्र-बहू का व्यवहार और गैर-जिम्मेदाराना हो गया। भरपेट भोजन खाए हमें कई दिन हो जाते थे। कुछ दिन पहले वे हमारे घर को बेचकर दूसरे शहर में रहने चले गए। मैं बीमार थी, जाते समय उन्होंने मुझे कपड़ों में लपेटकर मरने के लिये रास्ते पर छोड़ दिया। धन्य है बेटी कि तुमने मेरी जान बचाई।" यह कहते हुए उसकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। सुनते-सुनते शारदा की आँखें भी नम हो गईं।

स्वस्थ होने पर शारदा उस बूढ़ी औरत को अपने घर ले आई। बूढ़ी औरत शारदा को घर में अकेले देखकर बोली, "बेटी, तुम्हारे माता-पिता कहाँ हैं?" "पिता की मृत्यु हो चुकी है तथा माँ गाँव में रहती है।" हकलाते हुए शारदा जबाब दी। "क्या तुम अपनी माँ से मुलाक़ात कराओगी?" बूढ़ी औरत ने जिज्ञासा व्यक्त की। "क्यों नहीं? गाँव चलूँगी तो अपनी माँ से ज़रूर मिलाऊँगी।” शारदा आश्वासन देते हुए बोली।

अगले दिन शारदा हॉस्पिटल से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर बूढ़ी औरत के साथ अपने गाँव पहुँची। उसकी माँ बहुत खुश हुई क्योंकि काफी दिनों बाद शारदा गाँव लौटी थी। उसने बूढ़ी औरत से माँ को परिचय कराया। बेटी की नेकनियति से उसकी माँ काफी प्रसन्न हुई।

गाँव रहते कई दिन बीत गए। अब शारदा की छुट्टी ख़त्म होने को आई। किन्तु यह बात उसकी माँ समझ नहीं पाई कि वह बूढ़ी औरत बिना बताए रोज़ सुबह जाती कहाँ है? एक दिन सुबह जब बूढ़ी औरत घर से निकली तो शारदा और उसकी माँ भी चुपचाप पीछे लग गईं। वह बूढ़ी औरत एक कचरे के ढ़ेर पर जाती है और वहाँ फूल चढ़ाकर प्रणाम करती है। यह देखकर दोनों हैरान हो गए। दोनों सामने प्रकट होकर इस रहस्य को जानने के लिए पूछी – "इस कचरे के ढ़ेर पर पुष्प क्यों अर्पित करती हैं?" यह सुनकर बूढ़ी औरत उस ढ़ेर के पास बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और कहने लगी –"वर्षों पूर्व मैंने पुत्र की चाह में अपनी गूंगी पुत्री को मरने के लिये यहीं फेंक दिया था। मुझे नहीं पता था कि पुत्री कितनी धरोहर है? काश! मेरी पुत्री जिन्दा होती!" "आपकी सुपुत्री जिन्दा है, बहनजी!" चमेली ने आशा की किरण प्रस्फुटित की। "जिन्दा है! क्या आप सच बोल रही हैं? कहाँ हैं वह?" बूढ़ी आँखों में तैर रही आशा के साथ औरत चमेली से पूछी। "आपकी सुपुत्री आपके सामने खड़ी है।" शारदा की ओर इशारा करते हुए चमेली बोली। यह सुनकर शारदा और बूढ़ी औरत आवाक रह गईं। दोनों एक दूसरे से लिपटकर ख़ुशी से रोने लगे। घर आकर चमेली ने उसे सारी बातें बताई। उस बूढ़ी औरत की आँखों से लगातार पश्चाताप के आँसू बहे जा रहे थे जो यह सवाल कर रहे थे कि आखिर एक माँ से ऐसी गलती कैसे हो गई?

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