गिरनार पर्वत  Anupama Ravindra Singh Thakur

गिरनार पर्वत

गुजरात का सबसे ऊंचा पर्वत गिरनार जो हिमालय का भी दादा माना जाता है। गिरनार पर्वत के चारों ओर 33 कोटि देवताओं का वास है। इसलिए लाखों लोग पैदल चलकर 36 किमी. की ये कठिन परिक्रमा करते हैं। कार्तिक एकादशी के दिन लोग दूर दूर से इस पर्वत की परिक्रमा करने आते हैं।

भक्ति में असाधारण शक्ति होती है। यह शक्ति आस्था और विश्वास रूपी ईंधन से चालित होती है। जितना ईंधन अधिक, उतनी दृढ़ और प्रगाढ़ शक्ति, जो असंभव को भी संभव बना दे। शायद इसी शक्ति के बल पर ही आज भी हमारी धरती अपने अक्ष पर घूम रही है, सूर्य और चंद्रमा नित्य चलायमान हैं।

भक्ति सच्ची और दृढ़ हो, तो व्यक्ति को शक्ति स्वयं मिल जाती है। हम मनोविज्ञान के आधार पर ही देखें तो पाएँगे कि आस्था और भक्ति के बल पर बड़े-बड़े काम चुटकियों में हो जाते हैं। तुलसी ने तो कहा है :-

होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

आस्था की शक्ति कभी बोलती नहीं, चमत्कार करती है। इसी शक्ति ने मेरी भी आस्था को और अधिक दृढ़ बना दिया।

यह बात उस समय की है जब हम द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए गुजरात गए।दिसम्बर का महीना था। क्रिसमस की छुट्टियाँ चल रही थी। यह एक सामूहिक यात्रा थी, जिसमें 46 लोगों का समूह था। द्वारिकाधीश अवश्य मुख्य स्थल था परंतु उसके अतिरिक्त और कई धार्मिक स्थल थे। यात्रा के चौथे दिन हम जूनागढ़ पहुँचे, यह स्थान मेरे और मेरे परिवार के लिए बिल्कुल नया था।

टूर प्रबंधक ने सभी को सूचना दी कि भोजन के लिए अभी समय है, रात के 8:00 बजे हैं, आप चाहे तो स्थानीय मंदिरों के दर्शन कर आ सकते हो। समय व्यर्थ गँवाने की बजाय, सभी ने मंदिरों के दर्शन का निर्णय लिया। कई छोटे-बड़े मंदिरों के दर्शन करवा कर रिक्शावाला हमें गिरनार की प्रथम सीढ़ी के दर्शन कराने लेकर गया। यह रात्रि का समय था, रिक्शे में बैठे हमारे अन्य यात्री बता रहे थे कि गिरनार पर्वत की 10,000 सीढ़ियां हैं और पर्वत के शिखर पर श्री दत्तात्रेय भगवान की पादुका है। सभी की आस्था है कि आज भी श्री दत्तात्रेय भगवान वहाँ निवास करते हैं। कई लोग इन सीढियों को चढ़कर पादुका दर्शन करते हैं। तभी हमें एक वृद्धा तथा उसे पकड़े दो नौजवान आते दिखाई दिए। मेरे सहयोगी यात्री ने उस स्त्री से पूछा कि "क्या आप दर्शन कर आ रहे हैं ?" उस स्त्री ने गर्दन हिला कर 'हाँ' में जवाब दिया। मैं भी बहुत उत्साहित एवं आश्चर्यचकित थी। मैंने पूछा आपने पूरी यात्रा पैदल चलकर की है? उसने फिर गर्दन हिला कर 'हाँ' में अपना उत्तर दिया। उसके उत्तर देने के तरीके से लग रहा था कि वह बहुत थक चुकी है। मेरे पति ने पूछा, "आपने चलना कब प्रारंभ किया था?" तभी उसके एक बेटे ने कहा, "कल दोपहर 2:00 बजे से चलना प्रारंभ किया था। माँ की मन्नत थी इसलिए पैदल चलना आवश्यक था।" हम सब उस वृद्ध स्त्री को आश्चर्य से देखे जा रहे थे। मेरी बेटी ने कुतूहल से पूछा, "क्या आप लगातार केवल चलते ही रहे?" उसके बेटे ने कहा, "नहीं बीच-बीच में बैठते और फिर चलने लगते।" मैंने गर्दन उठा कर ऊपर देखा तो शिखर की ऊँचाई देखकर हिम्मत जवाब दे रही थी। फिर भी ना जाने कहाँ से मन में शिखर पर जाकर पादुका दर्शन की लालसा जाग उठी और अनायास ही मैंने हाथ जोड़कर ईश्वर से कहा, "हे गिरनार! हमें भी दर्शन का अवसर दो।"

बस मन में यही इच्छा लिए हमने प्रथम सीढ़ी के दर्शन किए और होटल लौट आए। दूसरे दिन भोर में ही हमें श्री सोरठी सोमनाथ जाकर बाबा भोलेनाथ के दर्शन करने थे और फिर उसी जूनागढ़ के होटल में लौट आना था। मन में गिरनार के प्रति असीम रोमांच लेकर हम सो गए।

पता था इस बार तो यह संभव न होगा। दूसरे दिन प्रातः 8:00 बजे हम सोरठी सोमनाथ के लिए निकल पड़े। यह मन्दिर 12 ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में माना जाना जाता है। मन में यह भय था कि यहाँ श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ होगी तो पता नहीं कितना समय दर्शन के लिए लगेगा। अगर जल्दी लौटते हैं तो गिरनार के दर्शन संभव हैं। अन्यथा यह विचार ही बेबुनियाद है। बाबा भोलेनाथ की नगरी में पहुँचकर मन प्रसन्न हो गया। हर कोई मस्तक पर शिव का तिलक धारण किए शिवमय दिखाई दे रहा था। हम सभी ने चंदन का तिलक लगवा लिया। शिव के दर्शन की आतुरता लिए हम उस लंबी कतार में खड़े हो गए। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए एक भव्य मंदिर के सामने आ गए। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था कि यह वही मंदिर था जिसे तालिबानी लुटेरे मोहम्मद गज़नी ने 17 बार आक्रमण कर लूटा और ध्वस्त कर दिया था। आज कैलाश पर्वत के समान ही यह मंदिर भी हर संकट को मात देकर अपनी गर्दन को ऊँचा किए अपनी भव्यता के साथ खड़ा है। भले ही यहाँ भारी भीड़ थी परंतु अनुशासन होने के कारण जल्दी ही हम उस पवित्र एवं सकारात्मक ऊर्जा वाले मंदिर में प्रवेश कर गए। चंदन एवं धूप-दीप की खुशबू से अंदर का दृश्य आमोद- प्रमोद था। अंदर प्रवेश करते ही मस्तिष्क से सारी चिंताएँ अपने आप लुप्त हो गईं और केवल शिव दिखाई दे रहे थे। दर्शन कर हम बाहर निकले तो स्वयं में एक अद्भुत शक्ति के संचार को महसूस कर रहे थे। वहाँ के अन्य सभी शिव मंदिरों के दर्शन कर हम संध्या 7:00 बजे जूनागढ़ लौट आए । 8:00 बजे तक भोजन हो गया, अब हमें गिरनार के लिए जाना था। मैंने अपने समूह के कई लोगों से पूछा कि क्या वे साथ चलेंगे? जो लोग पहले आने की बातें कर रहे थे, अब वे ही पीछे हट गए थे। 46 लोगों में से कोई भी हमारे साथ चलने के लिए तैयार नहीं था। एक दो लोगों ने हमें भी यह सलाह दी, "आप भी इतनी रात्रि में मत जाइए, रात्रि में वहाँ जंगली पशु हो सकते हैं।" मेरा मनोबल कुछ डगमगा गया।

दो बेटियों के साथ रात्रि के समय में जंगल के रास्ते से गुज़रने का विचार ही मुझे भयभीत करने लगा। मैं दुविधा में थी, मन कह रहा था, कोई डरने की बात नहीं है और मस्तिष्क कह रहा था कि मुझे सोच-विचार कर निर्णय लेना चाहिए। जब अपने मन की शंका मैंने अपने पतिदेव को बताई तो उन्होंने कहा, पहले वहाँ चल कर देख लेते हैं, रास्ते में कोई ना कोई मिल ही जाएगा। मेरी दोनों बेटियाँ भी अपने पिता के पक्ष में थीं, इसलिए मन में थोड़ा सा भय एवं संदेह और थोड़ा विश्वास लेकर मैं अपने परिवार के साथ निकल पड़ी। प्रथम सीढ़ी पर पहुँचे तब वहाँ कोई नहीं था। वहाँ पर प्रथम सीढ़ी पर विराजमान हनुमान जी और माता रानी के हमने दर्शन किए। मेरे पति ने नजदीक की दुकान से एक डंडा खरीदा ताकि चलने में कोई कठिनाई ना हो। उन्होंने मुझे भी कहा, पर मैंने मना कर दिया। हम लोगों के शरीर पर स्वेटर और हाथ में अपने-अपने मोबाइल तथा कुछ पिपरमेंट की गोलियाँ और एक पानी की बोतल थी। मन में इस आशा के साथ चलना प्रारंभ किया कि यहाँ नहीं पर आगे अवश्य कोई मिल जाएगा। हम आगे बढ़ने लगे। अचानक पता नहीं कहाँ से एक भूरे रंग का तगड़ा सा, चमकीली आँखों वाला कुत्ता आ गया और हमारे साथ-साथ चलने लगा। मैं बड़ी हैरान थी, वह ऐसे चल रहा था मानो उसे हम ही साथ लाए हों। हमारे रुकने पर, वह भी रुक कर चारों और देखने लगता। जैसे ही हम चलना शुरू करते, वह भी आगे-आगे ऐसे चलता मानो हमें दिशा निर्देश दे रहा हो। क्योंकि अभी रात्रि के 10 ही बज रहे थे इसलिए सीढ़ियों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बनी छोटी-छोटी दुकानें खुली थीं। हमने वहाँ से बिस्किट लेकर उसे खिलाने का प्रयास किया परंतु वह खाने में अधिक रूचि नहीं ले रहा था। जैसे बता रहा हो कि उसे खाने का कोई लालच नहीं है, वह तो बस इस समय हमारे साथ रहना चाहता है। लगभग 500 सीढ़ियों पर आकर हम बैठे ही थे कि उधर से 6 से 7 लोग लौटते दिखाई दिए। आयु में काफी वृद्ध लग रहे थे। हमने पूछा क्या आप दर्शन कर लौट रहे हो तो उन्होंने कहा, "हाँ"। हमने कोतुहल से पूछा, क्या पूरा सफर चल कर तय किया है?
उन्होंने कहा "हाँ"। मेरे पति ने पूछा, "चलना कब प्रारंभ किया था?" वृद्धा ने बताया कल दोपहर 2:00 या 3:00 बजे से। उन्होंने हमसे पूछा, "क्या आप चारों ही शिखर पर जा रहे हो?" हमने कहा -"हाँ।" उसमें से एक वृद्ध ने कहा, "आप चारों ही हो तो मेरी सलाह मानो अभी आप इतनी रात को मत जाओ। इन दो जवान बच्चियों को लेकर जाना उचित नहीं है।"

हम सब सोच में पड़ गए कि अब क्या किया जाए तभी मेरी सास का फोन आया। उन्होंने मुझसे पूछा आप लोग कहाँ हो? मैंने उत्तर दिया गिरनार पर्वत की चढ़ाई कर रहे हैं। वह जोर से चिल्लाई, इतनी रात में जहाँ चारों ओर जंगल है, कैसे निर्णय लेते हो तुम लोग? रास्ता भी बहुत छोटा सा है, अभी के अभी लौट जाओ। मैंने फोन अपने पति को दे दिया। उन्होंने माँ से कहा कि हम ही नहीं और लोग भी हैं और इतना कह कर फोन काट दिया। अपनी सास की बात और सहपथी की
बातें सुन मेरा मनोबल फिर से डगमगाने लगा। मैंने वापस लौटने का मन बना लिया। मैं अपने पति से कहने ही वाली थी कि लौट चलते हैं, इतने में 10 लोगों का समूह जिनमें तीन पुरुष, तीन स्त्रियां एवं चार बच्चे थे, पीछे से आता दिखाई दिया। वे जोर-जोर से माता रानी का जयकारे लगते हुए आगे बढ रहे थे। इस दुकान के निकट पहुँचकर वे भी वहीं बैठ गए और पानी पीने लगे। मेरे पति ने उनसे पूछा, "क्या आप शिखर पर जा रहे हैं?" उन्होंने कहा, "हाँ।" मेरे पति ने कहा, हम भी आपके साथ चलते हैं। वे सभी राजी हो गए। बड़ा समूह बनने के कारण अब मुझे अंधेरा और जंगली जानवर से डर नहीं लग रहा था परंतु समूह के लोगों की वेशभूषा देखकर मैं अवश्य चिंतित थी। पुरुषों की वेशभूषा एवं केश सज्जा एकदम बेकार घूमने वाले, दुष्ट चरित्र व्यक्तियों जैसी लग रही थी। स्त्रियाँ सिर पर आंचल डाले, उल्टा पल्ला लिए थी। मैंने अपने मन का संदेह मिटाने के लिए पूछा आप कहाँ से हो? उसमें से एक ने जवाब दिया, हम मध्य प्रदेश से हैं। मेरे पति ने पूछा, "क्या काम करते हो?" फिर से उसी ने जवाब दिया, "खेतों में गन्ना तोड़ते हैं।" अभी वे इसी काम के लिए यहाँ आए हैं पर पहले दर्शन करने की सोची। मेरे मन में भय और बढ़ने लगा। धारदार हथियार से गन्ना काटने वाले लोग हैं, कहीं मेरे बेटियों को कोई हानि न पहुँचा दें। आस-पास कोई नहीं था, केवल घना जंगल। बहुत ही छोटा रास्ता था। रात्रि के 12:00 बज चुके थे। हम 14 लोग पहाड़ पर चढ़ रहे थे। मेरा गला सूख रहा था। अब तक मुझे अंधेरे से एवं जंगली जानवर से डर लग रहा था परंतु अब इन लोगों से डर लग रहा था। मैंने अपने मन की शंका अपने पति को बताई। उन्होंने कहा, "नहीं ऐसे कुछ नहीं है उनके साथ भी तो स्त्रियाँ हैं। एक बात मुझे दिलासा दे रही थी कि वे लोग बार-बार माता रानी का जयकारा लगा रहे थे, तब मन में विचार आ रहा था कि शायद मैं इनके बारे में गलत सोच रही हूँ और केवल वेशभूषा के आधार पर किसी को दुष्ट समझना उचित नहीं है। अत: किसी तरह बलपूर्वक यह विचार मैं अपने मस्तिष्क से निकालने का प्रयास करने लगी।

जैसे-तैसे हम सभी ने 5000 सीढ़ियाँ तय कर ली। 5 हजार सीढियों पर माता रानी का मंदिर है, जो 12:00 बजे बंद हो चुका था। माता रानी के दर्शन की बड़ी इच्छा थी, बंद मन्दिर के कारण मन और निराश हो गया। लग रहा था जैसे हम सकारात्मक दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं। कुत्ता अभी भी हमारे साथ ही चल रहा था। उसे देख कर मेरा आत्म विश्वास लौट आता था। अब हम सभी काफी थक चुके थे। मंदिर आते ही हम सब विश्राम के लिए वहीं बैठ गए। वहीं मंदिर के पास मैले-कुचले वस्त्र पहने, काला सा अधेड़ उम्र का एक वृद्ध बैठा हुआ था। उसने हमसे पूछा, "क्या तुम इतनी रात को शिखर पर चढ़ना चाहते हो?" हमने कहा, "हाँ।" उसने हमें चेतावनी दी कि आगे का रास्ता बहुत ही कठिन है और काफी जंगली जानवर यहाँ घूमते हैं। आप इन बच्चों को लेकर आगे मत जाओ। उसकी बातें सुनकर हम सभी डर गए। इतनी ऊँचाई पर पहुँचने पर काफी ठंडी हवाएँ चल रही थीं। हम केवल स्वेटर पहने हुए थे, स्वेटर को चीर कर ठंडी हवाएँ शरीर को कंपा रही थीं। हम वहीं बैठ गए, मस्तिष्क मानो सुन्न हो चुका था। क्या करें? इतनी ऊंचाई पर आने के बाद लौटना भी संभव नहीं था। मेरी दोनों बेटियां ठंड से काँप रही थीं। मैंने छोटी बेटी को अपनी गोदी में सुला कर गर्मी देने का प्रयास किया। मन में बार-बार पछतावा हो रहा था कि क्यों नहीं हमने सब की बात मानी। श्री दत्त एवं माता रानी का नाम स्मरण कर वहीं एक बंद दुकान के टेबल के नीचे मैं अपने दोनों बेटियों को लेकर बैठ गई। अब जो होगा, सो देखा जाएगा। सोचना बंद कर दिया। जमीन भी बर्फ सी लग रही थी। दुकान के टेबल पर कुछ समाचार पत्र पड़े थे, वे ही उठाए और नीचे बिछाकर उस पर बैठ गए। उस से जमीन गर्म तो नहीं हुई परंतु एक मानसिक आधार जरुर मिला। वृद्ध व्यक्ति जो अभी तक ऊपर बैठा था, उठकर नीचे आया और हमारे समीप बैठ गया। वह लगातर बीड़ी के कश लगाए जा रहा था। वह बताने लगा कि वह कल निकला था, दर्शन कर लौट रहा था तो रात में देर हो गई और उसके पैरों में सूजन आ गई। अब वह नीचे उतरने में असमर्थ है, इसलिए वह मंदिर के पास बैठ गया है। मैंने पूछा, "माता रानी का मंदिर कब खुलेगा?" उसने कहा, सुबह 6:00 बजे। मैं परेशान हो गई। अभी तो 12:00 ही बज रहे हैं, ना उतरते बन रहा है और न चढ़ते बन रहा है और वहाँ बैठने पर ठंड सता रही है? क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मन ही मन मुझे अपना निर्णय मूर्खतापूर्ण लग रहा था। हमारे साथ चल रहे मध्य प्रदेश के लोग चादर बिछाकर वहीं लेट गए। जैसे उन्हें ऐसी परिस्थितियों का सामना करने की आदत हो। जैसे-तैसे आधा घंटा बीता कि 10-12 नौजवान लड़कों का समूह लाठी टेकता, वहाँ आ पहुँचा। हमें देखकर वे भी वहीं विश्राम के लिए बैठ गए। एक लड़के ने वृद्ध से पूछा, "बाबा आगे और कितनी सीढ़ियाँ हैं ?" वृद्ध ने उत्तर दिया अभी 5000 सीढ़ियाँ बाकी हैं, और आगे और सीधी चढ़ाई है, इसलिए आप कल सुबह चले जाओ। वृद्धि की बातें सुन पहले तो वे सभी हँस दिए और उठ कर आगे जाने लगे परंतु पता नहीं क्या हुआ, 5 -10 मिनट में ही वे लौट आए और उनमें से दो लड़के हमारे साथ बैठ गए तथा बाकी के 8 नीचे उतरने लगे। हमने पूछा क्या हुआ? उन दो लड़कों ने बताया कि आगे काफी गहरा अंधेरा है, कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। सभी को डर लग रहा है इसीलिए हम लौट आए। हम दोनों को किसी भी तरह शिखर पर चढ़ना है। इसलिए हम रुक गए और बाकी के इतने थक गए कि आगे बढ़ने की अब उनकी इच्छा नहीं है। अब हम सब मिलकर 16 लोग हो गए थे। तभी मेरी बड़ी बेटी को लघुशंका के लिए जाना था। मैं उसे लेकर पहाड़ी पर जगह देखने लगी। मैंने मंदिर के सामने नारियल की चोटियाँ देखीं। मन में विचार आया क्यों न इसे जलाया जाए। अपनी बेटी को एक तरफ ले जाकर लघुशंका करवाने के बाद मैंने वह नारियल के बालों का सारा कचरा वहीं पड़े एक बोरी में जमा किया और जहाँ हम बैठे थे, वहाँ ले आई। बहुत देर से वृद्ध बीड़ी पिए जा रहा था। उससे माचिस लेकर उस कचरे में आग लगाई। अब सभी वहाँ आ गए। हम सभी को थोड़ी राहत मिलने लगी। अब तो समूह के सभी व्यक्ति कुछ न कुछ कचरा चुनकर लाने लगे ताकि गर्मी बनी रहे। हम सभी आग सेंक ही रहे थे, तभी दो स्त्रियाँ एवं तीन पुरुषों का एक समूह नीचे से आया। ये लोग बहुत ही सभ्य लग रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या आप शिखर पर जा रहे हो? उन्होँने कहा "हाँ।" मैंने पूछा क्या हम आपके साथ चल सकते हैं? उन्होंने कहा, बिल्कुल चल सकते हैं। हम चारों निकल पड़े तो दोनों लड़के भी हमारे साथ चल दिए। मेरे पति ने उन मध्यप्रदेश वाले समूह को चलने के लिए कहा, परंतु उन्होंने मना कर दिया और कहा अब हम भोर होने पर ही चलना प्रारंभ करेंगे।

इस समय रात्रि का 1:30 बज रहा होगा। मैंने उनसे पूछा, "आप कहाँ से हो?" उन्होंने बताया वे पूना शहर से हैं। सभी मराठी में बतिया रहे थे। उनकी मराठी भाषा भी बहुत ही सभ्य एवं ऊँचे दर्जे की लग रही थी। सभी ने स्वेटर, उलन की टोपी पहन रखी थी। छोटे-छोटे बैग उनके पीठ पर लटक रहे थे। उसमें शायद कुछ सूखे मेवे एवं चॉकलेट थे। उनके साथ एक बुजुर्ग थे, उन्होंने अपना परिचय एक डॉक्टर के रुप में दिया।

अब मेरा सारा भय उड़न छू हो गया था। उनकी पत्नी और जवान बेटा साथ में थे। डाक्टर साहब की पत्नी काफी स्फूर्ति वाली महिला लग रही थी। उसने बताया कि वह इसके पहले दो बार शिखर चढ़ चुकी है। अतः उसे चढ़ने का काफी अनुभव है। सभी सदस्यों के हाथों में छोटी-छोटी टॉर्च थी। आगे का रास्ता बहुत संकरा एवं अंधकारमय था, प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी। मैंने अपने मोबाइल की टॉर्च लगाई। हम सब एक दूसरे के आगे-पीछे चल रहे थे। रास्ता इतना संकरा था कि एक समय में केवल दो ही व्यक्ति साथ चल सकते थे। डॉक्टर साहब बहुत बातूनी एवं दिलदार व्यक्ति लग रहे थे। उनकी बातों से पत्नी के लिये मान-सम्मान झलक रहा था। इस उम्र में इतनी सीढ़ियाँ चढ़ने का सारा श्रेय वे अपनी पत्नी को दे रहे थे। चढ़ाई बिल्कुल सीधी थी। 2-4 सीढ़ियाँ चढ़कर डॉक्टर साहब विश्राम करते। उनके साथ हम सभी विश्राम करते। उनकी पत्नी ने साथ में लाए काजू, बादाम, मुनक्के हम सबको दिए। वे रास्ते में खाते और बीच-बीच में नेचर ब्रेक कह कर लघुशंका के लिए रुकते। घर के सभी सदस्य उनका बहुत ध्यान रख रहे थे। हम सब बहुत आश्चर्यचकित थे कि 60 वर्ष की आयु में भी वे इतने कठोर शिखर पर चढ़ने की हिम्मत कर रहे हैं। स्वान अभी भी हमारे साथ था। गुरुदेव दत्त का नाम लेकर हम सब एक-दूसरे को हौसला देते हुए आगे बढ़ रहे थे। इन लोगों का साथ पाकर मेरा सारा भय जा चुका था। मैं अब बहुत ही फूर्ति के साथ सीढ़ियाँ चढ़ने लगी थी। मेरी दोनों बेटियाँ तो पहले से ही भयमुक्त थीं वे मुझे देख कर मुस्कुराने लगीं। हम सभी ने ऊपर देखा तो आश्चर्य का ठिकाना न था, शिखर आ चुका था, सुबह के 3:30 बज रहे थे और मंदिर अभी भी खुला ना था। ऊपर पहुँच कर हम सब मंदिर की सीढ़ियों पर दो-दो लोग एक तरफ होकर बैठ गए। इतनी ऊँचाई पर कंपाने वाली ठंडी हवाएँ चल रही थीं जो हड्डियों तक में झुरझुरी पैदा कर रही थीं। मैंने फिर से अपनी बेटी को नजदीक लिया ताकि उसको ठंड से बचा सकूँ। मुझे अपनी मूर्खता पर शर्म आ रही थी कि इतनी दूर यात्रा करने के लिए निकले और मैंने साथ में शाल भी नहीं रखी। हम ऐसे ही सिकुड़ कर बैठ गए। डॉक्टर साहब की पत्नी ने बताया 5:00 बजे पुजारी आ जाता है। अभी और डेढ़ घंटा प्रतीक्षा करनी थी। डॉक्टर साहब ने हम सब से कहा तब तक वे गुरु चरणामृत का 11 वां और 18वां अध्याय जो उन्हें कंठस्थ है वे सुनाते हैं। उन्होंने पहले उस अध्याय का अर्थ समझाया और फिर पाठ दोहराया। उनके मुख से उस मंदिर की सीढ़ियों पर यह पाठ सुन हम सभी धन्य हो गए। समय भी आसानी से कट गया। सुबह के 5:00 बज गए परंतु पुजारी नहीं आया। हम बार-बार नीचे की ओर खड़े होकर झाँकते, इस आशा में कि पुजारी महाराज दिख जाएँ परंतु पुजारी कहीं दिखाई नहीं देता था। हमने मोबाइल के इंटरनेट पर मंदिर के खुलने का समय खोजा। ऐसे दुर्गम स्थान पर भी हमें नेटवर्क मिल रहा था। खुलने का समय सुबह 6:00 बता रहा था। स्वान अभी भी हमारे साथ ही था और हम जहाँ बैठे वहीं बाजू में वह भी बैठ गया था। मेरी दोनों बेटियों ने सारे रास्ते उसे खूब सहलाया था। पर यह बड़ा आश्चर्य था कि बिना किसी लालच के वह हमारे साथ था। जब मैंने यह घटना मेरे एक परिचित ने बताया तो उन्होंने कहा कि भगवान श्री दत्त आपनी भक्तों की रक्षा के लिए कोई न कोई रूप धारण कर आते हैं। जैसे-जैसे उजियारा बढ़ने लगा वैसे-वैसे सीढियों पर लोगों की संख्या बढ़ने लगी। तभी वहाँ दो पुजारी वत्कल वस्त्र धारण किये पहुँचे। आश्चर्य था कि उनके साथ भी एक स्वान था। मन्दिर का द्वार खोल पहले तो उन्होंने मंदिर के अंदर साफ-सफाई की, फिर श्री दत्त भगवान की आरती की। हम सभी मंदिर के बाहर बैठे रहे। मन्दिर बहुत छोटा है, बिल्कुल 10/10 के कमरे जितना। शायद इसीलिए आरती के लिए किसी भी भक्त को अंदर प्रवेश नही मिला। आरती के पश्चात साधु महाराज ने एक-एक को कतार में भीतर आने के लिए कहा। अंदर पहुँचने पर एक से डेढ़ मिनट में पादुका के दर्शन कर बाहर निकलना होता है। वहाँ श्री दत्तात्रेय भगवान का एक फोटो और नीचे चंदन लगे पादुका हैं। अन्दर प्रवेश करते ही एक दिव्यता का अनुभव होने लगा। क्रोध, मान, माया और कपट जैसी आंतरिक कमज़ोरियाँ धीरे-धीरे कम होने लगीं। अद्भुत दिव्यता तथा अद्भुत आनंद और प्रकृति का बहेतरीन नज़ारा, प्रसन्नता, ताज़गी का अहसास होने लगा। बाहर आने पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतनी कठिन यात्रा हम ने तय की है। एक बात समझ में आई कि जहाँ आस्था होती है, वहाँ से हमें अदृश्य शक्ति हर स्थिति में मिलती ही है। ‘मानस’ के रचयिता महाकवि तुलसीदास जी ने तो लिखा है :

एक भरोसो, एक बल, एक आस विस्वास।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।।

वस्तुतः व्यक्ति की ‘आस्था’ में ऐसी शक्ति होती है, जो भले ही कभी ‘बोलती नहीं’, लेकिन व्यक्ति अपनी उसी आस्था के बल पर बड़ी से बड़ी मुसीबत से जूझ कर उस पर विजय पा लेता है।

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