सोने पर सुहागा  SMITA SINGH

सोने पर सुहागा

लड़के वाले आ रहे हैं शायद उसको देखने, यह उसको नौकरों की फ़ौज से अभी-अभी पता लगा। जिसको अनिल इतना ज़्यादा चाहता था, वैसे ही जैसे हीर-रांझा, शीरी-फ़रहाद की कहानियों में लिखा था मगर यह प्यार शायद एकतरफा था क्योंकि कभी आते-जाते ही औपचारिक बातचीत ही हो पाई थी नूपुर से ....

उमा ने अपनी प्यारी बच्ची, नूपुर को बड़े प्यार से निहारा और उसकी भोली सूरत देख विश्वास नहीं हुआ की इतनी जल्दी वह बड़ी हो गई। आसमानी साड़ी, आसमानी बिंदी और हाथों में सुनहरी, नीली चूड़ियाँ उसपर बहुत फब रहे थे। उमा जी ने अपनी शादी वाला झुमका भी पहना दिया उसे और दो अंगूठियाँ उसकी नाज़ुक अंगुलियों में डाल दीं।

चमक रही थी ऐसी आज जैसे कि नूर बरस रहा हो........

माँ के लिए इससे ज़्यादा बड़ी क्या बात हो सकती थी कि उसकी बेटी समय पर ब्याह कर अपने घर को सँवार ले। जान पहचान में ही किसी ने बताया था कि मयंक मिश्रा जी अपने बेटे की शादी के लिए कोई स्वजातीय लड़की ढूँढ रहे हैं और अमेरिका से इसी काम के लिए अगले सप्ताह पहुँच रहे हैं।

यह तो सोने पर सुहागा वाली बात हो गई और वक्त का फ़ायदा ले ही लिया जाए इसलिए बेटी की इच्छा-अनिच्छा पूछे बिना ही उमा ने मयंक जी को उनके परिवार के साथ आज आमंत्रित कर लिया था।

अनिल, अचानक नूपुर को इस तरह सजी हुई देख कर देखता ही रह गया। इससे पहले शायद ही कभी नूपुर इस तरह दिखी थी। अनिल, उमा के घर में किराएदार के रूप में रहता था और नूपुर का हम उम्र ही था और कुछ बरसों में घर परिवार जैसा ही हो गया था। कुशाग्र बुद्धि का अनिल किसी मायने में नूपुर की बराबरी नहीं कर सकता था, ख़ासकर पैसे रुपये के मामले में, मगर फिर भी उसको दिल ही दिल में बहुत चाहता था। ना तो उसने कभी कुछ प्रत्यक्ष रूप से ज़ाहिर किया ना ही कभी नूपुर ने ज़ाहिर किया।

अनिल एक साधारण परिवार का लड़का था। पढ़ाई के सिलसिले में इस शहर में आया था और उसे छात्रवृति भी मिली थी। विश्वविद्यालय कुछ ही दूरी पर था और घर खोजने के सिलसिले में ही उसे पता लगा कि इस कोठी में एक कमरा खाली है। यहाँ रहते उसे दो साल बीत गए थे और अब एक बड़ी संस्था में काम भी करने लगा था लेकिन रहता इसी घर में था। उसे इस घर से एक लगाव सा हो गया था।

लड़के वाले आ रहे हैं शायद उसको देखने, यह उसको नौकरों की फ़ौज से अभी-अभी पता लगा। जिसको अनिल इतना ज़्यादा चाहता था, वैसे ही जैसे हीर-रांझा, शीरी-फ़रहाद की कहानियों में लिखा था मगर यह प्यार शायद एकतरफा था क्योंकि कभी आते-जाते ही औपचारिक बातचीत ही हो पाई थी नूपुर से ....लेकिन फिर भी ना जाने क्यों यह बात उसको असहज कर रही थी। कभी सपने देखे थे कि एक दिन जब बड़े पद-प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लेगा तब बात छेड़ेगा, लेकिन हिम्मत कैसे करता इजहार करने की। एक बात तय थी कि नूपुर भी चाहत रखती थी मगर एक मौन, खामोशी हमेशा रही थी उसकी ज़ुबान पर। यह अहसास या भ्रम अनिल को एक आस देता रहता था। क्या आज सच में वह किसी और की हो जाएगी?

नूपुर मितभाषी थी और अपने स्वभाव के अनुसार आज भी खामोश ही थी, वैसे ही जैसे मूक सजी-धजी गुड़िया। अनिल ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह इस महल जैसे बँगले में प्रवेश भी कर पाएगा, लेकिन एक कमरा किराए पर मिला था उसे, क्योंकि वह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में छात्रवृति पर आया था। वह मेधावी था इसलिए ही मिला प्रवेश काफ़ी देर तक पूछ - ताछ के बाद और एक कमरा खाली भी था। चेहरे से और भाव भंगिमा दोनों से ही बेहद शरीफ भी था वह। वह तो घबरा रहा था गेट से अंदर जाने में लेकिन जब घर के एजेंट ने हिम्मत दी तब वह गया और उमा जी ने उसे क्या करना है, क्या नहीं करना है उसकी लिस्ट थमा दी। नज़रें झुकाए वह स्वीकृति देता रहा क्योंकि उसको तो बस पढ़ाई करनी थी और विश्वविद्यालय कोठी के बहुत नजदीक था इसलिए सुविधाजनक भी था।

हर बात में हामी भर वह दूसरे दिन ही आ गया। बहुत ही अनुशासनात्मक तरीक़े से रहा करता था इसलिए उमा जी की नज़रों में प्रिय घर के सदस्य सा ही हो गया था। दो साल तक रहा और मजाल हो कि कभी भी उसने नज़र उठा कर भी देखा हो। कभी छोटे-मोटे काम मकान मालकिन उमा जी बोलती थीं तब कर दिया करता था। बस नूपुर को कभी-कभार ज़रूर नज़र उठा देख लेता था।

अभी कुछ और सोच भी पाता तभी लम्बी चमचमाती सफ़ेद रंग की कार आ गई पोर्टिको में। दौड़ कर उमा जी और उनके पति राजेश ने मेहमानों का स्वागत किया। खूब अच्छी क़द काठी का लड़का था; शायद वही होगा नूपुर का भावी पति और क़रीब 8 लोग थे और काफ़ी धनाढ्य लग रहे थे।

बेटा अनिल, जरा इधर आना, उमा जी की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई। जी बोलिए, तत्परता से उसने पूछा। रबड़ी जलेबी बोल रखा था झुनझुनवाला मिठाईवाला के यहाँ पर उनका स्टाफ अभी तक आया नहीं लेकर। थोड़ा जाकर पता करोगे क्या? जी ज़रूर, यह कह कर चला गया आनन- फ़ानन ........

आँखें भरी जा रहीं थीं और मन विचलित हो रहा था। जल्दी सामान देकर अनिल चला गया बाहर ऐसे ही; इस ख़याल से कि नूपुर का ख़याल नहीं आएगा। रात 11 बजे पहुँच कमरा बंद कर बिस्तर पर निढाल हो गया और नींद लग गई। अगले दिन संस्थान जाते समय लॉन में सपरिवार उमा जी को ठहाका लगाता देख समझ गया कि शादी तय हो गई है। अनिल नज़रें झुकाए निकल गया और अपने सपने का चकनाचूर होना उसको बहुत असहज करता गया और पूरे दिन वह बहुत बेचैन रहा।

उन्हें (लड़के वालों को) शादी बस इसी महीने करनी थी। खूब ख़रीदारी हो रही थी। वैसे तो नूपुर के पिता जी भी एक बड़े व्यवसायी थे मगर लड़के वालों की माँग कुछ ज़रूरत से ज़्यादा थी। उनके सारे सगे संबंधियों को पाँच सितारा होटल में ठहराना था ऐसा उनके यहाँ से संदेश आया था। गहने, पैसा, स्वागत सत्कार का हर सम्भव प्रयास जो उमा जी की हैसियत से कहीं ज़्यादा था, वह भी वो करने को तैयार थे।

लेकिन हर दिन नुपूर का होने वाला ससुराल उन्हें मुश्किल में डाल रहा था। उनके स्टैण्डर्ड के हिसाब से करना होगा, रोज़-रोज़ यह सुन उमा जी को लग रहा था कि परिवार बहुत लालची है, दहेज लोभी है, पर सामाजिक दबाव में उनकी सारी उल-जुलूल माँगे पूरी करने की कोशिश कर रहे थे।

कहाँ फ़स गए! उमा जी बड़बड़ाती हुई बरामदे में ख़ुद ही बोली जा रही थीं। अनिल को देख इशारे से बुलाईं और वह तेज़ी से आ गया। बातों-बातों में उसे जैसे ही पता लगा कि कुछ पैसे की कमी हो रही है तो सकुचाते हुए उसने लिहाज़ से कहा कि वह कुछ कमा भी पाया तो इस घर में आकर ही। दो साल में कुछ लाख रुपये जमा किए हैं उसने और आज ही लाकर दे देगा। उमा जी को अहसास हुआ कभी-कभी अपने दुर्व्यवहार पर जब वह अनिल को गरीब समझ हेय दृष्टि से देखती थीं। आज वही उनकी प्रतिष्ठा बचाने के लिए ख़ुद का पैसा देने को तैयार हो गया। कितना शरीफ़ लग रहा था आज वह और नज़रों में अचानक कितना ऊँचा हो गया था।

उमा जी ने अपने पति से बात की और एक निर्णय लिया कि अपनी बेटी की शादी उस दहेज लोभी घर में नहीं करेंगी। लेकिन ऐसे समय में करें तो क्या करें। राजेश जी ने एक राय दी कि बेटी नूपुर से पूछा जाए। पूछते ही नुपूर की आँखों से टप-टप आँसू निकल पड़े। माँ, अनिल बहुत अच्छा है ...यह सुनते ही उमा जी को अहसास हुआ की वो अनिल से पूछ लेगी।

अनिल, तुम्हें हमने कभी अपनी हैसियत का नहीं समझा लेकिन आज कुछ तुमसे ही माँगने को बाध्य हो गई हूँ। क्या नूपुर का हाथ थामोगे, हमारे घर के दामाद बनोगे?? अनिल की संजीदगी और सादगी इस समय भी सराहनीय थी । उसने हामी में सिर हिलाया।

आज उमा जी के घर में शांति थी और नूपुर की ख़ुशी सच में इसी इंसान के साथ थी क्योंकि अब नूपुर की खामोशी में भी आवाज़ थी क्योंकि वह सच्चे मायने में ख़ुश थी।

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