दोहरा बोझ  Neelam Kushwaha

दोहरा बोझ

घर के काम और खाना बनाने के लिए रितु किसी नौकरानी को भी रखने के लिए उदय से बात कर चुकी थी। वो कई बार बता चुकी थी कि उससे नौकरी और घर का सारा काम नहीं हो पाता। शरीर और दिमाग थक के चूर हो जाता है। दोहरा बोझ उससे उठाया नहीं जा रहा था।

उनींदी आँखों से रितु ने मेज़ पर रखी घड़ी की तरफ देखा ꠰ उसे लगा मानो सुईयाँ पवन-वेग से दौड़ती हुई उस पर हँस रही हैं ꠰ सिर भारी लग रहा था, बीते कल की थकान अभी तक नहीं उतरी थी ꠰ वह पावनी का टिफिन, ऑफिस और उदय के बारे में सोच ही रही थी कि उदय के चिल्लाने की आवाज़ आयी "रितु मेरी चाय, मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है ꠰" "इतना कौन सा काम करती है कि सुबह उठा नहीं जाता", दुसरे कमरे से सास ने उलाहना देते हुए कहा ꠰ वैसे तो घर में सास, ससुर, उदय, पावनी और रितु रहते थे, लेकिन घर के सारे काम की ज़िम्मेदारी रितु की ही थी ꠰ सास तो हर बात में कहती कि सास-ससुर की सेवा करना ही रितु का धर्म है ꠰

रितु ने ज़ल्दी से अपने उलझे हुए बालों की गठरी बाँधी और पूरी स्फूर्ति से रसोई के काम में लग गई। हर सुबह आखों में आँसू आते लेकिन उसने कभी उन्हें बहने नहीं दिया। जल्दी-जल्दी घर के सारे काम समेटकर रितु बिना नाश्ता किए ही स्कूटी दौड़ाती हुयी ऑफिस पहुँची। खली पेट और भरे मन से वह अपने केबिन की कुर्सी पर बैठी। वह मन ही मन भगवान को याद करके बोली कि उसका दोष क्या है? स्त्री होना दोष है? पत्नी होना दोष है या बहू होना दोष है? थोड़ी देर में मोबाइल की घंटी बजी। उसके बॉस का कॉल था। "रितु प्रोजेक्ट रिपोर्ट की फाइल लेकर तुरंत आओ", बॉस ने तनी हुई आवाज़ में बोला। कँपकँपाती आवाज़ में रितु ने कहा – "जी सर, बस दस मिनट में लाती हूँ।" बॉस ने जोर से डाँटते हुए कहा- "लेडीज़ आर नॉट सूटेबल फॉर वर्क, डू इट फ़ास्ट। इमीडेटली।" रितु ने झटपट लैपटॉप पर उंगलियाँ दौड़ायी और काम पूरा किया। जैसे ही वह फाइल लेकर बॉस के केबिन में गई, बॉस ने गुस्से में कहा – "अगली बार काम में देरी हुई तो सैलरी में कटौती कर दूँगा।" रितु चुपचाप बॉस की डाँट सुनती रही। अपराधबोध के साथ वापिस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गयी। आज ये आरामदेह कुर्सी भी काँटों सी चुभ रही थी। उसने अपने आप को काम में ऐसे झोंक दिया मानो उसके थमने से सम्पूर्ण संसार ही थम जाएगा। रितु की सहेली पूजा ने उसके केबिन में आकार बोला – "रितु घर नहीं चलना& क्या ? इट्स मोर देन फाइव।" रितु ने हाँ में सिर हिलाते हुए लैपटॉप बंद किया और अपना बैग लेकर घर चली आई।

उसने जैसे ही दरवाज़े से अन्दर पैर रखा था कि ससुर ने ज़ोरदार आवाज़ में कहा – "चाय बना दो। पाँच बजे से इंतजार कर रहे हैं तुम्हारा।" रितु ने एक नज़र सास की तरफ देखा फिर चुपचाप डाइनिंग की कुर्सी पर अपना बैग लटकाकर, रसोई में चाय बनाने चली गई। चाय पीकर सास ने कहा कि वो मंदिर जा रही है, दिन भर घर में बोरियत होती रहती है। ऐसा कहकर वो दरवाज़े से बाहर निकल गई। रितु हाथ-मुँह धोकर, पावनी के साथ उसका होमवर्क करवाने बैठ गई। चाय की प्याली हाथ में थी लेकिन बौखलाहट दिमाग में हो रही थी। पावनी ने जिद किया – "मम्मा प्लीज़ कुछ अच्छा बना कर दो ना खाने के लिए। दादी नहीं बनाती।" वह उठी और रात के खाने की तैयारी करने लगी।

सास घर के किसी भी काम में हाथ नहीं बँटाती थी। रितु को लगता था कि उसकी सास कम से कम दो वक्त की चाय तो बना ही सकती थी, पावनी को कुछ समय दे सकती थी। घर के काम और खाना बनाने के लिए रितु किसी नौकरानी को भी रखने के लिए उदय से बात कर चुकी थी। वो कई बार बता चुकी थी कि उससे नौकरी और घर का सारा काम नहीं हो पाता। शरीर और दिमाग थक के चूर हो जाता है। दोहरा बोझ उससे उठाया नहीं जा रहा था। लेकिन उदय ने यह कह कर मना कर दिया कि माँ-पापा और वह, नौकरानी के हाथ का खाना नहीं खाएँगे। सास-ससुर ने कहा कि बहू हम लोग नौकरानी के हाथ के धुले बर्तनों में खाना नहीं खाएँगे। रसोई से झाँक कर देखा तो उदय पिछ्ले डेढ़ घंटे से अपने माँ-पापा से बातें कर रहे थे। रोज़-रोज़ के इस रवैये से रितु को झुंझलाहट होने लगी थी। उसका जी कर रहा था कि सारे बर्तन एक साथ ज़मीन पर दे मारे। रात का खाना खिलाकर वह बिस्तर पर लेट गई। पर उसे नींद नहीं आ रही थी। उदय के खर्राटे भी उसे राक्षसी-हँसी की तरह लग रहे थे। उसका दिमाग विचारों की उधेड़बुन में लगा था। एक लंबी आह भरकर उसे अनुभूति हुई कि कामकाजी महिला होना ही उसका दोष है। समाज में महिलाओं के लिए पूर्वाग्रह है कि घर का काम बहू ही करेगी। भले ही वह दिन भर नौकरी करके कमा के भी लाती हो। सास की कही हुई बात उसको कानों में बज रहे थे - "बहू एक साल से तुम्हारे साथ रह रहे हैं, अभी तक पोता नहीं दिया। एक बेटा पैदा करो, नहीं तो उनका वंश आगे नहीं बढ़ेगा।" रितु को पावनी के जन्म का समय याद आ गया। एकदम अकेली, कोई साथ नहीं। उदय अपने माँ- पापा को रितु के साथ रहने के लिए गाँव से ले आये थे। तब वह नौवे महीने की गर्भावस्था में थी। सत्रह दिन के बाद सास "मन नहीं लग रहा" की जिद करके वापिस चली गई। बच्चे के जन्म पर, उदय ने ख़ुशी से माँ को फोन मिलाया। माँ ने बधाई न देकर यह पूछा कि लकड़ा हुआ है या लड़की? उदय ने बताया कि गुड़िया हुई है, माँ ने फोन में ही रोना शुरु कर दिया। रोते- रोते कहा - "लड़की हुई है, लड़का होता तो अच्छा होता।" दस दिन बाद उदय ने अपने माँ-पापा को फिर से साथ रहने के लिए बुला लिया। रितु घर का काम करती और पावनी को भी संभालती। सास दो महीने बाद यह कह कर वापिस गाँव चली गई कि जब बुढ़ापे में हाथ-पैर काम नहीं करेगा तब तो बहू के साथ ही रहना है। अतीत की यादों से उसके दिमाग की नसों में इतना तनाव हो रहा था मानो आँखों से खून निकल आएगा।

अगली सुबह वह हर दिन की तरह घर के सारे काम निपटाकर, ऑफिस के लिए स्कूटी दौड़ा रही थी ꠰ पता नहीं कैसे वह चलते ट्रक के सामने आ गई। बस एक ज़ोर की आवाज़ और पल भर में उसका सारा बोझ हल्का हो गया। उसके चेहरे पर इतनी शांति और संतुष्टि जीते जी कभी नहीं थी, जितनी मौत ने उसे अपनाकर दी।

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