पैसे और सामान से नहीं बनते रिश्ते Rakhi Jain
पैसे और सामान से नहीं बनते रिश्ते
समाज के ठेकेदारों ने परम्पराओं की आड़ में पुत्र और पुत्री के जन्म होने पर खुशियों तक को अलग-अलग तराज़ू में तोलने के तरीके निकाल लिए हैं! बेटा हुआ तो पूरे शहर में डंका बजेगा और अगर बेटी हुई तो मानो जैसे कितना बड़ा दुख सिर आन पड़ा है!
शुचि आज बहुत खुश थी। आखिर उसकी छोटी सी रिया एक प्यारे से बेटे की माँ बन गई थी और वो नानी। अभी वो अपने जानने वालों से यह खबर साझा कर ही रही थी कि खबर मिली कि छोटी बेटी के ससुराल से कुछ लोग आ रहे हैं। सब छोड़ शुचि उनके स्वागत की तैयारी में लग गई।
रिया के सास - ससुर बधाई देते हुए बोले, "हमने सोचा हम स्वयं चलकर खुशी एक साथ ही मनाते हैं" और यह कहकर उन्होंने लड्डू का डब्बा आगे बढ़ा दिया। रिया के पिताजी ने जैसे ही हाथ आगे बढ़ाया तो रिया के ससुर हँसते हुए कहते हैं, "समधी जी पूरा लड्डू लीजियेगा! नाती होने का लड्डू तो आपको पहली बार हमारे नसीब से मिल रहा है। नहीं तो अब तक तो आपके यहाँ आपकी बड़ी बेटी दिया की दोनों बेटियों के कारण बर्फियों का ही आना-जाना रहा है।"
यह बेटे के जन्म पर लड्डू बाँटना और बेटी के जन्म पर बर्फी वाली बात को सुना अनसुना कर रिया की माँ सबके लिए नाश्ता लगा देती है। नाश्ता करते हुए रिया की सास कहती है, "अब देखिये! हमारे यहाँ पोता हुआ है तो आपका भी तो नाती हुआ है तो आप भी कुछ तो करना चाहेंगे ही। लेकिन ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। 20-25 मेहमानों की मिलनी व 20-25 साड़ियाँ... मिठाई, मेवे, फल इत्यादि बस और कुछ कमी रह जाएगी तो बाद में बता देंगे और हाँ अपने बेटी दामाद और नाती को जो आप देना चाहें वो आपकी मर्ज़ी।
इससे पहले की रिया के माँ-बाप कुछ कहते, रिया के ससुर बोले, "आप लोग ये बिल्कुल न समझियेगा कि हमें आपसे कुछ चाहिए! आप तो जानते ही हैं कि हम तो लेनदेन के सख़्त ख़िलाफ़ हैं! लेकिन अब समाज में रहना है तो फिर कुछ दिखावा तो करना पड़ेगा ही ताकि आपकी और हमारी इज़्ज़त समाज में बनी रहे। और वैसे भी आप जो करेंगे उससे तो आपकी बेटी का मान ही बढ़ेगा।" यह सब सुनकर रिया के माता-पिता सिर्फ यह सोच रहे थे कि नाती होने की ख़ुशी मनाएँ या उसके जन्म को कितने रुपयों से तोलना है यह सोचें!
वास्तव में सच तो यह है कि हमारे यहाँ बेटी की शादी कर देने मात्र से ही माता-पिता चिंता मुक्त नहीं हो जाते। बल्कि उन्हें ताजिंदगी उसकी खुशियों को बनाये रखने के लिए उसके ससुराल वालों के अहसानों के तले दबा रहना पड़ता है। बेटी के यहाँ खुशी हो या गम सब में देने-लेने के रीति-रिवाज उन्हें परेशान कर देते हैं। ऐसा लगता है कि बेटी के माता-पिता होना जैसे गुनाह है। लेना-देना अनुचित नहीं है, पर ये स्वेच्छा से होना चाहिए दबाव में नहीं। जरा सोचिए, कन्यादान को महादान कहा गया है। लड़की के माता-पिता अपनी बेटी के रूप में महादान देकर आपको अपना सब कुछ दे देते हैं, फिर भी आप हमेशा याचक ही बने रहते हैं क्या यह ठीक है....?
समाज का हवाला देनेवाले तालियाँ बजा तमाशा देखते हैं, लेकिन याद रहे, पैसे और सामान से नहीं बनते रिश्ते...!